Wednesday 13 April 2016

गुरूजी की अपरिपक्वता और अखण्ड हिन्दुराष्ट्र का पतन !

  हिंदू महासभा नेताओ की रा.स्व.संघ स्थापना की विशुध्द भावना यह थी की,युवा संस्कार-प्रतिकार क्षमता से ओजस्वी होकर हिंदू महासभा की राजनीतिक पूरकता बने. हिंदू महासभा ने कार्यकर्ता अभियान नही चलाया क्यो की संघ परस्पर पूरक-सहयोगी था.(शिवकुमार मिश्र-१९९८ दिस.जनज्ञान)

           १९३८ नागपूर अधिवेशन पश्चात वीर सावरकरजी ने १९३९संघ का महासभा मे विलय करने का और डा.हेडगेवारजी के ही नेतृत्व मे "हिंदू मिलेशिया" स्थापना का प्रस्ताव रखा था,संघ प्रवर्तक डा.मुंजे ने प्रयास भी जारी किये परंतु डा.हेडगेवारजी तयार नही हुए.(ले.वा.कृ.दानी-धर्मवीर मुंजे जन्मशताब्दी स्मरणिका)

         १९३९ कोलकाता हिंदू महासभा अधिवेशन मे गुरु गोलवलकरजी महामंत्री पद का चुनाव हारने के पश्चात हिंदू महासभा की राजनीती-अखंड राष्ट्र की क्षति का प्रामाणिक विचार नही किया ? कडी-साप्ता.गंगा पत्रिका मार्च-अप्रेल १९८७ संघ-सभामे आई दुरीयो की,गोलवळकरजी की कहानी से अधिवक्ता अवस्थी दि.२२फरवरी १९८८ हिं.स.वार्ता मे लिखते है," 
(क)गुरुजी चुनाव ही न लडते तो,हिंदू महासभा से नाराज न होते तो संभावना थी की,राष्ट्रीय नेता होते.संघ-सभा संबंध रहते.(ख)गुरुजी चुनाव जीत जाते तो हिंदू महासभा का कार्य जोरशोर से करते.संघ की जिम्मेदारी अन्य वहन करता.
(ग)गुरुजी चुनाव लडे-हारे उपरोक्त परिस्थितीया संभव थी.परंतु,हिंदू-हिंदुस्थान का दुर्भाग्य था.गुरुजी ने १९४६ के चुनाव मे नेहरू का साथ दिया और विभाजन का रास्ता खुल गया." 
           
            मा.श्री.चित्रभुषण,मॉडल टाउन,दिल्ली (साप्ताहिक हिन्दू सभा वार्ता दि.११ मार्च १९९६) लिखते है,रा.स्व.संघ के कार्यकर्त्ता रहे पत्रकार श्री.गंगाधर इंदुरकर गुरु गोलवलकर के निकट सहयोगी रहे है.इन्होने लिखी पुस्तक ' रा.स्व.संघ अतीत और वर्तमान ' में लिखा है, " जब तक डॉक्टर हेडगेवार जीवित रहे,संघ और सभा के मधुर सम्बन्ध रहे.इन संस्थाओ का आपस में सहयोग रहा.पर डॉक्टर हेडगेवार की अचानक मृत्यु के पश्चात् गुरूजी सर संघचालक बनते ही संघ और सभा में अनबन शुरू हो गयी जिसके कारण हिन्दू-हिन्दुराष्ट्र की बड़ी हानि हुई.लेखक के विचार में इस का ' मुख्य कारण गोलवलकरजी की अपरिपक्वता ही थी.' जहा हिन्दू महासभा के नेता वीर सावरकरजी और (१९३९ राष्ट्रिय उपाध्यक्ष हिन्दू महासभा) हेडगेवारजी परंपरागत रुढियो के विरोध में थे और हिन्दुराष्ट्र शब्द उनके लिए राजनितिक और राष्ट्रिय था वहा गोलवलकर की सोच परंपरागत संस्कृति की थी.गोलवलकर के व्यवहार में सावरकरजी के लिए वह आदर व आत्मीयता नहीं थी जो हेडगेवारजी में सावरकरजी के प्रति थी.

               १९३९-४० में हिन्दू महासभा और सावरकरजी की हिन्दू युवको के सैनिकीकरण की भूमिका को हेडगेवारजी ने सराहा था गोलवलकर ने उसका विरोध करना शुरू किया. इस विरोध के लिए गोलवलकरजी ने स्पष्टीकरण नहीं किया.इंदुरकर के अनुसार सावरकरजी की विचारधारा कुछ सही साबित हुई.पर यह बात उस समय संघ नेतृत्व की समझ में नहीं आ रही थी.गुरूजी के सैनिकीकरण के विरोध का कारण,यह भी हो सकता है कि, उन दिनों भारतभर में और खासकर महाराष्ट्र में सावरकरजी के विचारों की जबरदस्त छाप थी उनके व्यक्तित्व और वाणी का जादू युवकोपर चल रहा था और युवक वर्ग उनसे बहुत आकर्षित हो रहा था. ऐसे में गोलवलकरजी को लगा हो कि अगर यह प्रभाव इस प्रकार बढ़ता गया तो युवको पर संघ की छाप कम हो जाएगी.संभवतः इसलिए,गोलवलकरजी ने सावरकर और हिन्दू महासभा से असहयोग की निति अपनाई हो.इस विषय में लेखक ने संघ के एक वरिष्ठ अधिकारी श्री.आप्पा पेंडसे से हुई बातचीत का जिक्र करते हुए लिखा है कि, ऐसा करके गोलवलकर ने युवको पर सावरकर की छाप पड़ने से तो बचा लिया पर ऐसा करके गोलवलकर ने संघ को अपने उद्देश्य दूर कर दिया.क्या ऐसा करके संघ नेतृत्व ने संगठन की जगह विघटन नहीं किया ? आगे लेखक लिखता है,यही कारण है कि,संघ द्वारा जीवन को जो मोड़ दिया जाना चाहिए था,उसमे संघ असफल रहा."

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