Friday 25 March 2016

भारतमाता की जय !

अखण्ड भारत में स्वतंत्रता के लिए हिन्दू,मुसलमानो ने जयकारा लगाया था। वन्देमातरम सभी जाती पंथ के लोगो ने गाया था।
विभाजनोत्तर भारत संविधानिक समान नागरिकता के अभाव में हिन्दुराष्ट्र है ! क्योकि,अल्पसंख्या के आधारपर विभाजन हो चूका है। अक्टूबर १९४७ में AMU प्रोफ़ेसर कमरुद्दीन खान ने अखण्ड पाकिस्तान की योजना बनाई है। ऐसे में,अनेक स्तरपर मुस्लिम परस्त राजनीती और राष्ट्रीयता में विषमता का लाभ उठाकर अलगाववादी धार्मिक आदेश का हवाला देकर वन्देमातरम या भारतमाता की जय को संविधानिक आदेश के विपरीत कहकर यह राष्ट्रद्रोह नहीं ? कहा जा रहा है।
जमात ए इस्लाम के संस्थापक मौ.मौदुदी लिखते है,'राष्ट्रीयता के प्रति प्रेम बढ़ता है तो,इस्लाम का विकास नहीं होगा !' मदरसों में यही कुराण की आयते पढाई जाती है। विश्व में गैर इस्लामी इनका शत्रु है और शत्रु देश को इस्लामी बनाना और इस्लाम बहुल राष्ट्र में शरिया लागु करना इनका उद्देश्य है ! संविधानिक समान नागरिकता इन्हें स्वीकार नहीं राष्ट्रीयता में अलगाववाद की जड़ यही है।विश्व में इस्लामी साम्राज्यवाद आतंक की छाया में विस्तारित हो रहा है। भारत में कश्मीर को लेकर वामपंथी ,कॉंग्रेसी,आप की एक भाषा है तो,अलगाववादियों की समर्थक PDP के साथ भाजप प्रांतीय सरकार बना बैठी है।
इसलिए हर गाव-नगर में राष्ट्रीयता में विषमता समाप्त करनेवाले पतित पावन मंदिर बनाकर उसमे केवल "भारत माता" की मूर्ति या छायाचित्र लगाकर सम्पूर्ण वन्दे मातरम से १-२ समय आरती हो ! यह मांग हिन्दू महासभा २७ मार्च २०१२ से कर रही है।
सावरकर जी ने रत्नागिरी के स्थानबध्द कार्यकाल में पतितोध्दार,अछुतोंको मंदिर प्रवेश के लिए पतित पावन मंदिर का निर्माण कर पुर्वाछुत पुजारी शिवा को नियुक्त किया था.आज की स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया।देश में छुआछूत को त्यागकर समान नागरिकता का आधार बनना चाहिए ! भारतमाता की जय तब होगी ! नहीं माने उसकी नागरिकता समाप्त क्योकि,आश्रयर्थियो के लिए देश के स्वामी को हिंदुत्व और हिन्दुराष्ट्र से कोई रोक नहीं सकता !

हां,सैनिकीकरण के बल देश को स्वतंत्रता प्रदान करनेवाले सावरकरजी गद्दार है !


सन १८५७ क्रांति के पश्चात हिन्दू राजनीती का आंदोलन न उभरे ; जो, ब्रिटिश सरकार के विरुध्द असंतोष उत्पन्न करें। इस भय से आशंकित ब्रिटिश सरकार ने विरोधी तत्वों को अवसर देने के बहाने अंग्रेजी पढ़े-लिखे युवकों को साथ लेकर राजनितिक वायुद्वार खोलने का मन बनाया।
ब्रिटिश सरकार से वफादार ही कांग्रेस में नेता बन सकते थे !
पूर्व सेनाधिकारी रहे एलन ऑक्टोव्हियन ह्यूम को,पाद्रीयों की सलाह पर सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट तथा वाइसराय लॉर्ड डफरिन ने परस्पर परामर्श से ऐसा संगठन खड़ा करने को कहा कि,वह ब्रिटिश साम्राज्य से ईमानदार रहने की शपथ लिए शिक्षित हो और इसमें २०% मुसलमान भी हो ! यह थी कांग्रेस अर्थात राष्ट्रीय सभा  स्थापना की पृष्ठभूमि। २८ दिसंबर सन १८८५ मुंबई के गोकुलदास संस्कृत विद्यालय में धर्मांतरित व्योमेशचंद्र बैनर्जी को राष्ट्रिय सभा का राष्ट्रिय अध्यक्ष चुनकर कार्यारंभ हुआ। इसके प्रथम अधिवेशन से लेकर सन १९१७-१८ तक "God Save the King ...." से आरंभ और  "Three cheers for the king of England & Emperor of India " प्रार्थना से समापन होता रहा।
गरम दल के कांग्रेस नेता लोकमान्य तिलकजी को राजनीती से दूर रखने के लिए ब्रिटिश सरकार ने मोतीलाल नेहरु की सहायता से अनेक प्रयास किये। मोतीलाल के सहकारी सी आर दास ने अमृतसर अधिवेशन में तिलक जी के ब्रिटिश सरकार के अनुसार प्रस्ताव लाने के विरोध में गांधी के हस्तक्षेप पश्चात महामना पंडित मदनमोहन मालवीय के साथ रहकर कार्यरत बैरिस्टर मो क गांधी को मारने या बन्दीवास धमकियां देकर नेहरु के तबेले में बांधा और तिलकजी की प्रतिध्वंविता समाप्त की। मार्च १९२० तक हिन्दू विरोधी न रहे रौलेट ऐक्ट के विरोध में राष्ट्रिय आंदोलन करनेवाले गांधी एकदम ब्रिटिश एजेंट नेहरु परिवार के गुलाम बने।नेहरु हो या गांधी को बन्दीवास में जो आगाखान पैलेस या जैसे महलो में रहे तथा पत्राचार,ऐय्याशी की सुविधाए मिलती रही। घूमना-मिलना अनिर्बंध था।जहां गांधी ने नेहरु के इशारे को नकारा वहां गांधी अपनी सुविधा के अनुसार कारागार में भी रहे और कॉंग्रेसियो से मिलते भी रहे।
प्रसंगवश-१९२२ में असहयोग आन्दोलन को जारी रखने पर जो स्वतंत्रता मिलती, उसका पूरा श्रेय गाँधी को जाता। परंतु ,“चौरी-चौरा” में ‘हिंसा’ होते ही उन्होंने अपना ‘अहिंसात्मक’ आन्दोलन वापस ले लिया। जबकि, उस समय अँग्रेज घुटने टेकने ही वाले थे ! दरअसल गाँधीजी ‘सिद्धान्त’ व ‘व्यवहार’ में अन्तर नहीं रखनेवाले महापुरूष हैं।  इसलिए उन्होंने यह फैसला लिया। जब कि एक दूसरा रास्ता भी था- कि, गाँधीजी ‘स्वयं अपने आप को’ इस आन्दोलन से अलग करते हुए इसकी कमान किसी और को सौंप देते। मगर यहाँ ‘अहिंसा का सिद्धान्त’ भारी पड़ जाता है- ‘देश की स्वतंत्रता’ पर।
बलिदानी त्रिमूर्ति भगत सिंग,सुखदेव,राजगुरु की मुक्तता के लिए जब हस्ताक्षर अभियान चलाया गया। गांधी ने हस्ताक्षर करने से मना इसलिए किया कि ,"ऐसा करने से ब्रिटिश सरकार विरोधी हिंसक कृती का समर्थन होगा !"

१९२७ चेन्नई मे सर्व दलीय बैठक मे पं.मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता मे जनता की तात्कालिक मांगो का समाधान निश्चित करने के लिये समिती बनाई गई।इस 'नेहरू रिपोर्ट' ने जो प्रस्ताव लाये वह ऐसे थे,'विधी विधान मंडल मे अल्पसंख्यको को चुनाव लडने आरक्षित-अनारक्षित स्थान,वायव्य सरहद प्रांत को गव्हर्नर शासित,सिंध से मुंबई अलग करना,४ स्वायत्त मुस्लीम बहुल राज्य का निर्माण,संस्थानिकोने प्रजा को अंतर्गत स्वायत्तता दिये बिना भविष्य मे संघराज्य संविधान मे प्रवेश निषिध्द।' इन मे परराष्ट्र विभाग-सामरिक कब्जा नही मांगा गया था।

मात्र नेताजी सुभाषजी ने इस बैठक में "संपूर्ण स्वाधीनता" की मांग रखकर गांधी की ब्रिटीश वसाहती राज्य की मांग का विरोध किया। इस नेहरू रिपोर्ट पर ३१ दिसंबर १९२८ आगा खान की अध्यक्षता मे दिल्ली मे मुस्लीम परिषद हुई।उसमे जिन्ना ने देश विभाजक १४ मांगे रखी। ३१ अक्तूबर १९२९ रेम्से मेक्डोनाल्ड की कुटनिति के अनुसार आयर्विन ने ब्रिटीश वसाहती राज्य का स्थान देने को मान्य किया।
विदित हो,सावरकरजी की प्रेरणा से भारत छोड़कर जापान हिन्दू महासभा नेता क्रांतीकारी रासबिहारी बोस से मिलने की और ब्रिटिश सेना पर बाहर से आक्रमण और सैनिकीकरण की योजना के साथ भरती राष्ट्रनिष्ठ सैनिकों के बल पर सुभाष बाबू के विद्रोह की योजना सावरकरजी ने बनाई थी।
 स्टेफर्ड क्रिप्स ने महायुद्धोत्तर भारत को वसाहत राज्य देने की घोषणा की। तत्पश्चात जिन्ना ने संविधान निर्माण का विरोध करने की घोषणा की। सावरकर-मुंजे-मुखर्जी ने क्रिप्स की भेंट की और संविधान सभा मे सहयोग का विश्वास देकर विघटनवादी मानसिकता को रोकने की कुटनीतिक मांग की थी। २० फरवरी १९४७ 'स्वाधीन हिंदुस्थान अधिनियम १९४७' पारित हुवा और ३ जून को षड्यंत्रकारी नेहरू-बेटन-जिन्ना की योजना प्रकट हुई।७ जुलाई को वीर सावरकरजी ने राष्ट्र ध्वज समिती को टेलिग्राम भेजकर,'राष्ट्र का ध्वज भगवा ही हो अर्थात ध्वजपर केसरिया पट्टिका प्रमुखता से हो,कांग्रेस के ध्वज से चरखा निकालकर "धर्मचक्र" या प्रगती और सामर्थ्यदर्शक हो !' ऐसी मांग की।
 भारत का प्रभावशाली राजनीतिक दल काँग्रेस पार्टी गाँधीजी की ‘अहिंसा’ के रास्ते स्वतंत्रता पाने का समर्थक था, उसने नेताजी सुभाष के समर्थन में जनता को लेकर कोई आन्दोलन शुरु नहीं किया। (ब्रिटिश सेना में बगावत की तो, खैर काँग्रेस पार्टी कल्पना ही नहीं कर सकती थी !) ऐसी कल्पना नेताजी-जैसे तेजस्वी नायक के बस की बात है। ...जबकि दुनिया जानती थी कि इन “भारतीय जवानों” की “राजभक्ति” के बल पर ही अँग्रेज न केवल भारत पर, बल्कि आधी दुनिया पर राज कर रहे हैं।
आझाद हिन्द सेना का ब्रिटिश सरकार से मुक्त भारत का आक्रमण और सत्ता लालची ब्रिटिश एजेंट नेहरु ने अमेरिकन राष्ट्रपती रुझवेल्ट को टेलीग्राम भेजकर "आपके मित्र राष्ट्र ब्रिटेन के अधीन राष्ट्र पर शत्रुराष्ट्र का आक्रमण हो रहा है !" कहकर सुभाष की सेना पर हवाई हमले करवाए। प्रसंगवश यह भी जान लिया जाय कि भारत के दूसरे प्रभावशाली राजनीतिक दल भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी ने ब्रिटिश सरकार का साथ देते हुए आजाद हिन्द फौज को जापान की 'कठपुतली सेना' (पपेट आर्मी) घोषित कर रखा था। नेताजी के लिए भी अशोभनीय शब्द तथा कार्टून का इस्तेमाल उन्होंने किया था।

कम्युनिस्ट आंदोलनों के जनक एम एन रॉय को कानपूर कांड में जुलाई १९३१ में बंदी बनाया गया था। ९ जनवरी १९३२ को उन्हें १२ वर्ष का कारावास सुनाया गया। मात्र,२० नवंबर १९३६ को मुक्त कर दिया गया था। यह कैसे संभव हुआ ?
१९४१ में कम्युनिस्ट पार्टी में दो फाड़ हुए। एक प्रतिबंधित और दूसरा गुट सीपीआई महामंत्री पी सी जोशी के नेतृत्व में कार्यरत था। बंदी नेताओ ने ब्रिटिश सरकार का साथ देना स्वीकार किया तब २४ जुलाई १९४२ को उनपर लगा प्रतिबंध हटा था।
यह वही गृहसचिव थे जो,वीर सावरकरजी की अंदमान मुक्ती पर कठोर हुए थे, रेजीनॉल्ड मैक्सवेल ! मैक्सवेल के साथ सी पी जोशी का पत्रव्यवहार भारत देश और देशभक्तों के साथ विश्वासघात था।
"An alliance existed between the Politbureau of fhe Communist Party & the Home Department of the Govt.of india by which Mr.P.C.Joshi was placing at the disposal of the Govt.of india,the services of his party members."

कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ कार्यकर्ता एस एस बाटलीवाल ने दिनांक २२ फरवरी १९४६ को पत्रकार परिषद में इस समझौते  उल्लेख किया और कहा कि,"पी सी जोशी ने पार्टी कार्यकर्ताओं को देशभक्त आंदोलको के पीछे गुप्तचरी करने के लिए लगाया और CID को सूचना प्रेषित की। "
नेताजी सुभाषचंद्र बॉस आझाद हिन्द फ़ौज अन्य क्रांतिकारियों की गतिविधियों की जानकारी कांग्रेस नेता तथा सरकार को देना,उन्हें बंदी बनवाना कम्युनिस्टों का विशेष कार्य था।
(दैनिक बॉम्बे क्रॉनिकल दिनांक १७ मार्च १९४६ से स्ट्रगल फॉर फ्रीडम के लेखक आर सी मुजुमदार ने उद्घृत किया है। )

सेना के भारतीय जवानों की इस दुविधा ने आत्मग्लानि का रुप लिया, फिर अपराधबोध का और फिर यह सब कुछ बगावत के लावे के रुप में फूटकर बाहर आने लगा।
फरवरी १९४६ में, जबकि लालकिले में मुकदमा चल ही रहा था, रॉयल इण्डियन नेवी की एक हड़ताल बगावत में रुपान्तरित हो जाती है।* कराची से मुम्बई तक और विशाखापट्टणम् से कोलकाता तक जलजहाजों को आग के हवाले कर दिया जाता है। देश भर में भारतीय जवान ब्रिटिश अधिकारियों के आदेशों को मानने से मना कर देते हैं। मद्रास (चेन्नई) और पुणे में तो खुली बगावत होती है। इसके बाद जबलपुर में बगावत होती है, जिसे सरदार पटेल-आसफ अली समजौते के साथ दो हफ्तों में दबाया जा सका। 45 का कोर्ट-मार्शल करना पड़ता है।
ब्रिटिश नाविक दल आन्दोलन एवं बगावत १९४४ में नहीं हुआ, वह डेढ़-दो साल बाद होता है और लन्दन में राजमुकुट यह महसूस करता है कि भारतीय सैनिकों की जिस “राजभक्ति” के बल पर वे आधी दुनिया पर राज कर रहे हैं, उस “राजभक्ति” का क्षरण शुरू हो गया है... और अब भारत से अँग्रेजों के निकल आने में ही भलाई है।
अन्यथा जिस प्रकार शाही भारतीय नौसेना के सैनिकों ने बन्दरगाहों पर खड़े जहाजों में आग लगाई है, उससे तो अँग्रेजों का भारत से सकुशल निकल पाना ही एक दिन असम्भव हो जायेगा... और भारत में रह रहे सारे अँग्रेज एक दिन मौत के घाट उतार दिये जायेंगे।यह भय नेहरु-गांधी के कारन नहीं उपजा था !

सबसे पहले, माईकल एडवर्ड के शब्दों में ब्रिटिश राज के अन्तिम दिनों का आकलन:
“ भारत सरकार ने आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चलाकर भारतीय सेना के मनोबल को मजबूत बनाने की आशा की थी। इसने उल्टे अशांति पैदा कर दी- जवानों के मन में कुछ-कुछ शर्मिन्दगी पैदा होने लगी कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार का साथ दिया। अगर बोस और उनके आदमी सही थे- जैसाकि सारे देश ने माना कि वे सही थे भी- तो ब्रिटिश भारतीय सेना के भारतीय जरूर गलत थे। भारत सरकार को धीरे-धीरे यह दीखने लगा कि ब्रिटिश राज की रीढ़- भारतीय सेना- अब भरोसे के लायक नहीं रही। सुभाष बोस का भूत, हैमलेट के पिता की तरह, लालकिले (जहाँ आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चला) के कंगूरों पर चलने-फिरने लगा, और उनकी अचानक विराट बन गयी छवि ने उन बैठकों को बुरी तरह भयाक्रान्त कर दिया, जिनसे स्वतंत्रता का रास्ता प्रशस्त होना था।”
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अब देखें कि ब्रिटिश संसद में जब विपक्षी सदस्य प्रश्न पूछते हैं कि ब्रिटेन भारत को क्यों छोड़ रहा है, तब प्रधानमंत्री एटली क्या जवाब देते हैं। प्रधानमंत्री एटली का जवाब दो बिंदुओं में आता है कि, आखिर क्यों ब्रिटेन भारत को छोड़ रहा है-
१ . भारतीय मर्सिनरी (पैसों के बदले काम करने वाली- पेशेवर) सेना ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति वफादार नहीं रही, और
२ . इंग्लैण्ड इस स्थिति में नहीं है कि वह अपनी (खुद की) सेना को इतने बड़े पैमाने पर संगठित एवं सुसज्जित कर सके कि वह भारत पर नियंत्रण रख सके।
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यही लॉर्ड एटली १९५६ में जब भारत यात्रा पर आते हैं, तब वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल निवास में दो दिनों के लिए ठहरते हैं। कोलकाता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश चीफ जस्टिस पी.बी. चक्रवर्ती कार्यवाहक राज्यपाल हैं। वे लिखते हैं: “... उनसे मेरी उन वास्तविक बिंदुओं पर लम्बी बातचीत होती है, जिनके चलते अँग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा। मेरा उनसे सीधा प्रश्न था कि गाँधीजी का "भारत छोड़ो” आन्दोलन कुछ समय पहले ही दबा दिया गया था और १९४७ में ऐसी कोई मजबूर करने वाली स्थिति पैदा नहीं हुई थी, जो अँग्रेजों को जल्दीबाजी में भारत छोड़ने को विवश करे, फिर उन्हें क्यों (भारत) छोड़ना पड़ा? उत्तर में एटली कई कारण गिनाते हैं, जिनमें प्रमुख है नेताजी की सैन्य गतिविधियों के परिणामस्वरुप भारतीय थलसेना एवं जलसेना के सैनिकों में आया ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में क्षरण। वार्तालाप के अन्त में मैंने एटली से पूछा कि अँग्रेजों के भारत छोड़ने के निर्णय के पीछे गाँधीजी का कहाँ तक प्रभाव रहा? यह प्रश्न सुनकर एटली के होंठ हिकारत भरी मुस्कान से संकुचित हो गये जब वे धीरे से इन शब्दों को चबाते हुए बोले, “न्यू-न-त-म!” ”
(श्री चक्रवर्ती ने इस बातचीत का जिक्र उस पत्र में किया है, जो उन्होंने आर.सी. मजूमदार की पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ बेंगाल’ के प्रकाशक को लिखा था।)
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निष्कर्ष के रुप में यह कहा जा सकता है कि:-
१ . अँग्रेजों के भारत छोड़ने के हालाँकि कई कारण थे, मगर प्रमुख कारण यह था कि भारतीय थलसेना एवं जलसेना के सैनिकों के मन में ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में कमी आ गयी थी और- बिना राजभक्त भारतीय सैनिकों के- सिर्फ अँग्रेज सैनिकों के बल पर सारे भारत को नियंत्रित करना ब्रिटेन के लिए सम्भव नहीं था।
२ . सैनिकों के मन में राजभक्ति में जो कमी आयी थी, उसके कारण थे- नेताजी का सैन्य अभियान, लालकिले में चला आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा और इन सैनिकों के प्रति भारतीय जनता की सहानुभूति।
३ . अँग्रेजों के भारत छोड़कर जाने के पीछे गाँधीजी या काँग्रेस की अहिंसात्मक नीतियों का योगदान नहीं के बराबर रहा।

गांधीवादी गोलवलकर के अनुसार रिक्रूट वीर, स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी के प्रति अति आदरयुक्त भावना के कारण हिन्दू महासभा के कार्यकर्ता सावरकर भक्त इस सत्य का स्वीकार नहीं कर सकते की उन्होंने अंडमान से प्रार्थनापत्र भेजा था। परन्तु,रत्नागिरी स्थानबध्दता में उनके साथ रहे नारायण सदाशिव बापट जी ने लिखी पुस्तक 'स्मृति पुष्पे' में लिखा है कि , " अंदमान से मुक्ति के लिए सावरकर जी ने किये पत्राचार की जानकारी Echoes from the Andmans इस अपने कनिष्ठ बंधू को भेजे पत्र संकलन में मिलती है। 
उसमे साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार को, "वसाहती स्वराज्य से समाधान" और "सनदशीर (व्यावहारिक) मार्ग का अवलम्ब" आदि आश्वासन के अतिरिक्त कुछ नहीं है। और वह भी एक मुक्तता के लिए क्रांतिकारी दांव था जो उनके आदर्श छत्रपति शिवाजी महाराज जी ने आगरा से मुक्तता के लिए प्रयोग किया था। सावरकरजी ने अपनी मुक्तता के लिए अंडमान से जो पत्राचार किया वह किसी प्रकार से समझौता नहीं था। भारत माता की मुक्तता के लिए क्रांतीकारी अपने आप को बंधनमुक्त होने का मार्ग नहीं चुनेगा ? अर्धमुक्त होकर उन्होंने ब्रिटिश प्रतिबन्ध के रहते हुए भी रत्नागिरी में जो कार्य गुप्तचरोंकी आँख में धुल झोंककर किया वह सम्पूर्ण मुक्ति की राह देखते नहीं बैठे थे ! उससे स्पष्ट होता है। सावरकरजी ने यह भी स्पष्ट किया था की, 'मेरे जैसा प्रसिध्द व्यक्ति यदि जिलाबंदी तोड़कर कार्य करने निकल पडूंगा तो भी गुप्त नहीं रहेगा."
          लाहोर से प्राप्त ट्रिब्यून में वार्ता छपी थी.'पंजाब के गव्हर्नर हाॅटसन को भरी दोपहरी में फर्ग्युसन कोलेज-पुणे के ग्रंथागार में हिन्दू महासभाई क्रांतिकारी जो आगे कांग्रेस ने अपहृत कर तिलक स्मारक मंदिर-पुणे के शिलान्यास में निमंत्रित किया वह क्रांतीकारी वासुदेव बलवंत गोगटेजी ने निकट से गोली चलाकर मार डाला.' सावरकरजी ने अपने निकटवर्ती बापट को इस क्रांतिकृत्य पूर्व "वा ब गोगटे मुझसे मिलकर आशीर्वाद लेकर गए थे !" उस समय का वार्तालाप कहा था। अर्थात अर्धबंदी स्थिति में सावरकरजी ने समाजसुधार की आड़ में राजनीती एवं क्रान्तिकार्य भी किया यह स्पष्ट होता है।
सावरकरजी की उपेक्षा में कांग्रेस के साथ गांधीवादी गोलवलकर ने साथ दिया है और कांग्रेस द्वारा सावरकरजी को गद्दार कहने में गोलवलकर विचारक परदे के पीछे कांग्रेस के साथ है। 
स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी को गणमान्योने दी श्रध्दांजलि शब्दों को देखे !

१]महामहिम राष्ट्रपति डॉक्टर राधाकृष्णन:-'सावरकर एक पुरानी पीढ़ी के महान क्रांतिकारक थे,उन्होंने परतंत्र की शासन व्यवस्था से मुक्ति के लिए विस्मयजनक मार्गोंका अवलंब किया.राष्ट्र स्वतंत्रता के लिए उन्होंने अनंत यातनाये झेली थी.उनका जीवन चरित्र नयी पीढ़ी के लिए आदर्श स्वरुप है|

२]कांग्रेस महामंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी:-सावरकर जी के निधन से हम लोगों में से महापुरुष को छीन लिया है,यतार्थ में,सावरकर साहस और राष्ट्रभक्ति का ही दूसरा प्रतिशब्द है.सावरकर सर्वश्रेष्ठ क्रांतिकारी थे.उनसे अनेकोने प्रेरणा ली थी|

३]गुरुवर्य रेंगलर परांजपे:-'सावरकर मेरे छात्र थे;याद है की,'एक प्रसंग में मैंने उनको दण्डित किया था,उनके और मेरे सम्बन्ध नजदीकी के थे.हाल ही में मेरी ९० वर्ष की जन्म तिथि पर स्मरण पूर्वक रुग्णशैय्या से शुभेच्छा भेजी थी.वह महान देशभक्त थे.उनका नाम अनंत काल तक संस्मर्निय रहेगा|'

४]दलित संघ अध्यक्ष एवं सांसद नारायणराव काजरोलकर:-'
स्वा.वीर सावरकर एक महान क्रांतिकारक तो थे ही लेकिन हरिजनों के महान दैवत थे.अछूतोध्दार के लिए उन्होंने किये प्रयास अद्वितीय थे|'

५]श्री.बलराज जी मधोक:-जिनको स्वतंत्र भारत का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनना चाहिए था वे स्वतंत्र भारत में बंदी बन गए|

६]स्व.बालासाहेब देवरस जी (१९३८ हिन्दू महासभाई ):-
हुए बहुत,होंगे बहुत परन्तु इनके समान वही,इस उक्ति को यतार्थ से सिध्द करनेवाले नर शार्दुल अर्थात वीर सावरकर

७]गोरक्ष पीठ महंत श्री दिग्विजयनाथ जी महाराज:-
वीर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू राष्ट्रवाद ही वह संजीवन बूटी है,जो हमारे देश को साम्प्रदायिकता प्रांतीयता व् जातीय संकीर्णता से बचा सकती है
८]पंडिता राकेशारानी आर्य:- धार्मिक राजनितिक क्रांति के जनक महर्षि दयानंद, क्रांतिवीर वासुदेव बलवंत फडके और समष्टिवाद के दर्शनकार कार्ल मार्क्स की दिव्य ज्योति इनका संगम थे वीर सावरकर !

सावरकरजी सामान्य क्षमावीर या रिक्रूटवीर होते तो,विरोधी ऐसी श्रध्दांजलि देते ? प्रश्न अपने आप से पुछिए !
सावरकरजी एक हिन्दुत्ववादी पार्टी हिन्दू महासभा के १९३७ से १९४२ राष्ट्रिय अध्यक्ष रहे है। वह यहाँ उनके क्रांति कार्य,समाज सुधारकार्य तथा हिन्दू संगठन रास्वसंघ की स्थापना में डॉक्टर हेडगेवारजी के मार्गदर्शक रहे होने का राजनितिक सन्मान है। वह दूरद्रष्टा थे !
सावरकरजी का सन्मान कांग्रेस-वामपंथी भी करते थे। यह प्रमाण !
सावरकरजी के साथ अभिनव भारत में सक्रीय रहे तथा सावरकरजी को अंडमान से मुक्त करने के प्रयास में रहे राजा महेंद्र प्रताप ने १९५७ में सांसद रहते संसद में प्रस्ताव रखकर तीन नेताओ को ,"स्वतंत्रता सेनानी" का सन्मान दिलवाया। उनमे स्वातंत्र्यवीर सावरकर एक थे। हर माह पांचसौ रूपया मानधन मेहरु के मंत्री मंडल ने पारित किया था।
कपूर आयोग के अहवाल के आने के पश्चात भी ,१९७० सावरकरजी को गणमान्य माननेवाली नेत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने जनसंघ और वामपंथियो के सहयोग से सावरकरजी के गौरव पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने एक डाक टिकट जारी किया।कांग्रेस या वामपंथी दलों ने किसी प्रकार की आपत्ती नहीं की। केंद्रीय मंत्री सत्यनारायण सिंह द्वारा प्रकाशित पत्र का मायने देखे ........ 
सावरकरजी को उद्देशकर लिखा है ,"His Life is History of Resistance ,Strife ,Struggle ,Suffering & Sacrifice for the cause of Political ,Social & Economic emancipation of India " सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार दिनांक १९-०५-१९७० {नैशनल अर्काइव्ह ऑफ़ इंडिया-देहली }
१९८३ को वीर सावरकरजी की जन्म शताब्दी के उपलक्ष में एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म भारतीय भाषाओ में बनाने को केंद्रीय मंत्री मंडल ने स्वीकारोक्ति दी। श्री प्रेम वैद्य ने इसकी निर्मिती की। इसे केंद्र सरकार ने पारितोषिक देकर सन्मानित किया।
पूर्व हिन्दू महासभाई स्व भाऊराव देवरसजी,पूर्व मुख्यमंत्री महाराष्ट्र सुशीलकुमार शिंदे ने नागपुर में सावरकर जन्मशताब्दी समारोह में स्मरणिका प्रकाशन में स्व विक्रमराव नारायण सावरकर के साथ सहभाग किया।
१९८९ राष्ट्रिय सावरकर स्मारक,दादर,मुंबई के उद्घाटक राष्ट्रपती स्व शंकर दयाल शर्मा,महाराष्ट्र के राज्यपाल स्व के ब्रह्मानंद,मुख्यमंत्री श्री शरद पवार उपस्थित थे।
१९९२ सावरकर स्मारक द्वारा पकाशित स्मरणिका में ,प्रधानमंत्री नरसिंघ राव,शरद पवार,लालू प्रसाद यादव,सुधाकर राव नाईक के सावरकर गौरव प्रद लेख प्रकाशित हुए।
१९९५ सावरकरजी को,"भारतरत्न" पुरस्कार की हिन्दू महासभा की मांग पर राष्ट्रपती शंकर दयाल शर्मा जी ने ऐसे पुरस्कार वितरण की धांधली रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश से प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में समिती बनवाने का प्रमोद पंडित जोशी ने सघन प्रयास किया। मात्र कांग्रेस-भाजप की राजनीती हमेशा आड़े आती रही।वाजपेयी को भारतरत्न प्रदान करने में विरोध न हो इसलिए मोदी सरकार ने अखिल भारत हिन्दू महासभा संस्थापक महामना पंडित मदनमोहन मालवीयजी को भारतरत्न देकर सन्मानित तो किया मात्र सावरकरजी की उपेक्षा वाजपेयी के समय से लेकर होती रही। 

सावरकरजी को ,"भारतरत्न" प्रदान करने के विरोधी कांग्रेस और भाजप की यह संयुक्त योजना है और सावरकर गद्दार ?

Thursday 17 March 2016

हिन्दू महासभा का असफल झाली ? लेखक उपन्यासकार गुरुदत्त


  हिन्दू महासभे ने संगठनात्मक कार्य रा.स्व.संघ वर सोपवून केवळ राजकारणाकडे लक्ष केंद्रित केले होते.जनमत संघटन शक्ती च्या जोरावर चालते तर राजकारण बौध्दिक आधारा वर ! स्वराज्य प्राप्ति पूर्व देशाचे राजकारण कांग्रेस च्या हाती होत तर, संघ कांग्रेस पोषक बनला होता !
       सन १९४५ मेरठ च्या संघ शिबिरात गोलवलकर गुरुजी नी गाँधी ची उघड उघड प्रशंसा केली होती. त्या काळात संघ बौध्दिक हिन्दू मत-मतान्तर यावर भर देणारे होते, निर्मोही अखाडा चे नागा साधू समर्थ श्री रामदास स्वामी यांची प्रेरणा घेतली जात होती. राम-कृष्ण चे नाव देशाच्या काना कोप्र्यात घेतले जात होते. त्यांनी इस्लाम चा विरोध केला पण इस्लामी राजकारण विरोधात त्यांचा प्रभाव शून्य होता. अतः संघाचे बौध्दिक नाममात्र आणि जातीचे शरीर बचाव संगठन झाले, त्याला आता राजनीती म्हणतात. हेच कारण आहे कि, स्वराज्य मिळत्या वेळी २०-२५ लक्ष स्वयंसेवक असतांना सुध्दा संघ कांग्रेस चा विरोध देश विभाजन प्रसंगी करू शकला नाही. शरणार्थी हिन्दू जनते च्या रक्षणाचा प्रयत्न होत राहिला. परन्तु,संघ जनसामान्य चे आन्दोलन होवू शकले नाही.आमच मत आहे कि, संघ आन्दोलन स्वराज्याच्या पार्श्व भूमी वर कुठलाही प्रकारचा प्रभाव उत्पन्न करू शकला नाही.
              स्वराज्याच्या उपरांत, विशेषतः १९४८ साली संघ अवैधानिक घोषित केल्या नंतर काही संघ कार्यकर्त्यांच्या मनात राजकीय प्रभाव असावा अशी भूमिका निर्माण झाली होती. त्यावेळी संघ चे सहस्त्रो स्वयंसेवक आणि गुरूजी बंदीगृहात होते. काही लोकांच्या मनात आल की कांग्रेस चा विकल्प शोधला पाहिजे आणि संघाला एक राजनितिक संस्थेत बदलण्याचा विचार उत्पन्न झाला. पं.मौलिचन्द्र शर्मा संघ आणि सरकार यांत मध्यस्थ भूमिका बजावत होते. (या दरम्यान गुरूजी-पटेल यांची कारागृहात भेट झाली.) गुरूजी नी संघ केवल सांस्कृतिक कार्य करील ! अशी घोषणा केली आणि या आश्वासन? नंतर प्रतिबन्ध हटला. आतल्या आत राजकीय महत्वाकांक्षा प्रदीप्त होत होती , एक राजनितिक दल जो संघ पोषित असेल असा बनविला पाहिजे, उ.भा.संघ चालक वसंतराव ओक  (ज्यांनी हिन्दू महासभा भवन देहली मध्ये संघ शाखा लावणे आरंभले होते.) संघ राजनीतीत असावा असे दृढ़ मानत होते. त्यांचा सम्पर्क हि सामान्य हिन्दू जनते सोबत व्यापक होता. (या दरम्यान हिंदू महासभा केंद्रीय मंत्री श्यामा प्रसाद मुखर्जीचा नेहरू विरोध आणि हिन्दू महासभा शब्दातून हिन्दू शब्द काढून टाकण्याचा दबाव प्रस्ताव प्रकट झाला.)

             संघ नेत्यांनी हिन्दू महासभा बरोबर उलट व्यवहार आरंभल्याचे स्पष्ट झाले. जिथे हिन्दू महासभा हिंदुत्व ची राजनीती चालवू पाहत होती, तिथे संघ केवल मात्र हिन्दू नावावर संगठन विस्तारात सफलता प्राप्त करण्याचा प्रयत्न करत होता. मुखर्जी नी मंत्री मंडल मधून त्यागपत्र देताच ओक आणि अन्य राजनितिक उद्दिष्ट बाळगणारे संघ नेता त्यांना भेटू लागले. ओक यांना संघ नेतृत्व नी पसंत केल नाही. श्री. बलराज मधोक या दिवसात श्रीनगर येथे प्राध्यापक होते. कश्मीर मध्ये  पाकिस्तान ची घुसपैठ सुरु झाली तेव्हा तेथील जनतेचे मनोबल तुटू दिले नाही धैर्य दिल. संघ नेता राजकारण पासून पृथक राहण्याचा आटोकाट प्रयत्न करीत होते. तरी हि १९५१ कानपुर मध्ये भारतीय जनसंघ चे महामंत्री पदावर ओक नियुक्त होणार असतांना त्यांच्या ऐवजी संघ कार्यकर्त्ता पं.दीनदयाल उपाध्याय ना पुढे केले गेले. त्याकाळात ते कोणती हि ख्याति प्राप्त नव्हते. अश्या प्रकार ची शंका व्यक्त केली जात होती कि, जेव्हा कधी जनसंघ कांग्रेस च्या विरुध्द एक बलशाली राजनितिक दल बनते तेव्हा संघ अधिकारी त्यांचे पाय ओढत. परिणाम असा होत होता कि जे लोक हिन्दू विचारधारेच्या पोषण साठी इथे येतात त्यांना प्रभावी बनू दिल जात नव्हत , अतः हा पक्ष संघ ची उपसमिति मात्र होवून राहिली आहे.

       प्रश्न हा आहे कि,हिन्दू सांस्कृतिक विचार सरणीच्या पक्षाचे राज्य या देशात असावे कि नाही ?  याची नितांत आवश्यकता आहे. एक प्राचीन, अति श्रेष्ठ, मानव जातीच्या उन्नत्ति चे साधन जे या देशाच्या मनीषींनी आपला त्याग आणि तपस्या द्वारे जिवंत ठेवला आहे.त्याला जिवंत ठेवण्यासाठी,हिंदुत्व ची राजनीती प्रचलित व्हायला हवी. जी आता देशात नाही.

           राजनितिक आंदोलनांवर अधिकार मिळविणे सफलतेच साधन आहे.हिंदुत्व ची वास्तविक गौरवाची स्पष्ट रुपरेखा डोळ्या समोर ठेवून हिंदुत्वाला एक राष्ट्र रूप द्यायला हवे. त्यांत मुख्यतः गुण,कर्म,स्वभाव च्या आधारावर राजनीती प्रचलित केली जावी. जाती च्या प्राचीन मान्यतेवर  आघाता पासून रक्षणासाठी राज्यसत्ते च  सञ्चालन झाल पाहिजे.

     वर्तमान परिस्थितीत अबुध्द विचारधाराचे शासन चाललय. त्याचा विरोध केलाच पाहिजे. संपूर्ण हिन्दू समाजाला सांस्कृतिक आधार देण असंभव आहे परन्तु अभारतीय असुरी शिक्षणाच्या व्यापक प्रचारास रोखून हिन्दू समाजाचा व्यापक आधार बनविण्याच्या प्रयत्नात योगदान दिल पाहिजे.
        हिन्दू संघठनांनी मिळून एक संयुक्त कार्यक्रम बनविला पाहिजे ; एक सांस्कृतिक आणि एक राजनितिक दिशे ने.रोटी-कपड़ा-मकान या शारीरिक आवश्यकता असून तो जीवनाचा एक न्यून अंश आहे . जाति ची संस्कृति जी शरीर, इन्द्रिय आणि मन यांच्या वर आहे, तिला लक्ष करा. आपली धर्म स्थल-तीर्थ वा दर्शनीय वस्तु या गौण आहेत. त्यांच्या मुळाशी जो विचार आहे, तेच मुख्य आहे आणि ते बुध्दी चे विषय आहे. करिता जाति ना निम्न बिंदूंवर संगठित केल पाहिजे.
 १) परमात्मा २) जीवात्मा ३) कर्मफल ४) पुनर्जन्म ५) धर्म चे दहा नियम ६) आत्मना प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत ७)  बुध्दी चे पथ प्रदर्शन ८) सामाजिक व्यवहारात समाज अधीन परन्तु, व्यक्तिगत व्यवहारात स्वतंत्रता ९) परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुष्कृताम् १०) या सर्व साठी संयम आणि तपस्या ; हाच कल्याणांचा मार्ग आहे आणि या कल्याणातच हिंदुत्व आहे . हिंदुत्व हे अध्यात्मिक, वैज्ञानिक मान्यता आणि व्यवहार आहे ! सद्बुध्दी आणि स्व रक्षणाचा मार्ग भारत भू मंडल तथा मानवते ची रक्षा करण्याचा मार्ग आहे.
 * सन्दर्भ ग्रन्थ-हिंदुत्व की यात्रा-ले.गुरुदत्त "शाश्वत संस्कृति परिषद्" ३०/९० कनोट सरकस,नयी दिल्ली-१

भ्रांतियाँ,डॉक्टर महामानव आंबेडकरजी का धर्मांतरण नहीं,मतांतरण हुवा !


  भारत को संविधान प्रदान करनेवाले महान नेता डा. भीमराव आंबेडकरजी का जन्म १४ अप्रैल १८९१ को मध्यप्रान्त के मऊ एक छोटे से गांव में हुआ था। डा. भीमराव आंबेडकर के पिताश्री रामजी मालोजी सकपाल और माता का भीमाबाई था। अपने माता-पिता की चौदहवीं संतान के रूप में जन्में डॉ. भीमराव आंबेडकर जन्मजात प्रतिभा संपन्न थे।

      भीमराव आंबेडकर का जन्म महार जाति में हुआ था, जिसे लोग अछूत और बेहद निचला वर्ग मानते थे। बचपन में भीमराव अंबेडकरजी के परिवार के साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव किया जाता था।आंबेडकरजी के पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्य करते थे और उनके पिता ब्रिटिश भारतीय सेना की मऊ छावनी में सेवारत थे। भीमराव के पिता हमेशा ही अपने बच्चों की शिक्षा पर जोर देते थे।
      १८९४ में भीमरावजी के पिता सेवानिवृत्त हो गए और इसके दो साल बाद,आंबेडकरजी की मां की मृत्यु हो गई।बच्चों की देखभाल उनकी चाची ने कठिन परिस्थितियों में रहते हुये की। रामजी सकपाल के केवल तीन बेटे बलराम, आनंदराव और भीमराव और दो बेटियाँ मंजुला और तुलासा ही इन कठिन हालातों मे जीवित बच पाए। अपने भाइयों और बहनों मे केवल भीमराव ही स्कूल की परीक्षा में सफल हुए और इसके बाद बड़े स्कूल में जाने में सफल हुये। अपने एक "देशस्थ ब्राह्मण शिक्षक महादेव आंबेडकर" जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे के कहने पर आंबेडकर ने अपने नाम से सकपाल हटाकर आंबेडकर जोड़ लिया जो उनके गांव के नाम "अंबावडे" पर आधारित था।

    ८ अगस्त १९३० को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान आंबेडकरजी ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा।जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसकी सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है।

     अपने विवादास्पद विचारों, और गांधी और कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद आंबेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण जब १५ अगस्त १९४७ में भारत की स्वतंत्रता के पश्चात कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई मिश्र सरकार अस्तित्व में आई।तो, उसने आंबेडकर को देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। २९ अगस्त १९४७ को आंबेडकरजी को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। २६ नवंबर १९४९ को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया।
{ भारत-दर्शन संकलन से साभार }      
    भारतीय संविधान निर्माण पूर्वोत्तर-डॉ.बाबासाहेब आंबेडकरजी को संविधान निर्माता कहकर इतिहास का उलटफेर करनेवाले नेता संविधानिक त्रूटीयो से बचने के लिये "मसौदा समिती" के अध्यक्ष डॉक्टर आम्बेडकरजी को संविधान निर्माता बताने के पक्ष मे क्यो? भारतरत्न डॉ.आंबेडकरजी के नाम से हो रही राजनीतीपर क्या विचार-इतिहास है/हो,पर मंथन करे।
    अखंड हिंदुस्थान को मिलने जा रही स्वायत्तता के राजनितिक लक्षण देखकर पुणे मे अधिवक्ता ढमढेरेजी के बाडे मे राष्ट्र्भक्तोने (इनमे हिन्दू महासभा के प्रार्थमिक सदस्य अधिवक्ता डॉ.आम्बेडकरजी भी थे।) भिन्न देशो के संविधान का अध्ययन कर एक मसौदा सन १९३९-४२ के बीच तय्यार किया;उसे लो.टिळक गुट के लोकशाही स्वराज्य पक्ष और अखिल भारत हिंदू महासभाने लो.टिळक स्मृतीदिन पश्चात २ अगस्त १९४४ को पारित किया था।                    
          वास्तव मे १९१९ गव्हर्मेंट ऑफ इंडिया विधी विधान २३ दिसंबर १९१९ को मॉनटेनग्यू-चेम्सफोर्ड ने बनाया था।उसपर १९१६ लखनौ करार का प्रभाव था, इसलिये हिंदू महासभा नेता धर्मवीर डॉ.मुंजेजी ने उसका विरोध किया और कॉंग्रेस कि तटस्थता के कारण मुसलमानो को अधिक प्रतिनिधित्व मिला। बहुसंख्यको को जाती-पंथ-संप्रदाय-लिंग भेद मे विघटीत किया गया।मुडीमन कमिशन ने मार्च १९२५ मे जो रिपोर्ट दी,"१९१९ विधी विधान जनता कि आकांक्षा पूर्ण करने मे असमर्थ है इसलिये,संविधान मे परिवर्तन किये बिना दोष सुधार के लिये बदलाव सूचित करता है,कहा।"८ नोव्हेम्बर १९२७ बोल्डविन ने अनुच्छेद ४१ के अनुसार जॉन सायमन के नेतृत्व मे "विधी विधान सुधार समिती" का गठन किया। उसमे हाउस ऑफ लॉर्डस के सत्येंद्र प्रसाद सिन्हा और हाउस ऑफ कॉमन्स के सकालत्वाला को सदस्य न बनाकर ७ आंग्ल सदस्य बनाये,इस कमिशन ने जोईन्ट फ्री कॉन्फरन्स बनाई। जिसका विरोध करते समय लाहोर मे अ.भा.हिंदू महासभा के संस्थापक सदस्य लाला लाजपत राय जी कि मृत्यू हुई थी। १९२७ चेन्नई मे सर्व दलीय बैठक मे पं.मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता मे जनता की तात्कालिक मांगो का समाधान निश्चित करने के लिये समिती बनाई गई. 'नेहरू रिपोर्ट'ने जो प्रस्ताव लाये वह ऐसे थे,'विधी विधान मंडल मे अल्पसंख्यको को चुनाव लडणे आरक्षित-अनारक्षित स्थान,वायव्य सरहद प्रांत को गव्हर्नर शासित,सिंध से मुंबई अलग करना,४ स्वायत्त मुस्लीम बहुल राज्य निर्माण,संस्थानिकोने प्रजा को अंतर्गत स्वायत्तता दिये बिना भविष्य मे संघराज्य संविधान मे प्रवेश निषिध्द।' इन मे परराष्ट्र विभाग-सामरिक कब्जा नही मांगा गया था।मात्र नेताजी सुभाषजी ने संपूर्ण स्वाधीनता की मांग कर गांधी की ब्रिटीश वसाहती राज्य की मांग का विरोध किया। इस नेहरू रिपोर्ट पर ३१ दिसंबर १९२८ आगा खान की अध्यक्षता मे दिल्ली मे मुस्लीम परिषद हुई।उसमे जिन्ना ने देश विभाजक १४ मांगे रखी। ३१ अक्तूबर १९२९ रेम्से मेक्डोनाल्ड की कुटनिति के अनुसार आयर्विन ने ब्रिटीश वसाहती राज्य का स्थान देने को मान्य किया और १९४७ को मिला भी। तदनुसार, ब्रिटीश राणी की अध्यक्षता मे ब्रिटीश वसाहती साम्राज्यनिष्ठ राष्ट्रो की चोगम परिषद बनी जो आज भी होती है।                                                                                                                                                                                                                     गोलमेज परिषद की असफलता के पश्चात रेम्से ने १६ अगस्त १९३२ को कम्युनल एवोर्ड(सांप्रदायिक निर्णय) विधेयक घोषित किया।अल्पसंख्यक- पुर्वाछुत मतदार संघ अधिक प्रतिनिधित्व का निर्माण किया।हिंदू महासभा नेता धर्मवीर मुंजे,भाई परमानंदजी ने लंडन तक जाकर विरोध किया,पं.मालवीयजी ने येरवडा कारागार मे गांधी के बाद डॉ.आंबेडकरजी की भेंट लेकर अपनी विरोधी भूमिका मे समर्थन मांगा।
      अंततः १८ मार्च १९३३ को ब्रिटिश सरकार ने श्वेतपत्र भी निकाला.हिंदू महासभा नेताओ ने बहुसंख्यको मे स्वर्ण-पुर्वाछुत विभाजन की राजनीती रोकने का सफल सामाजिक प्रयास किया। परन्तु,२ अगस्त १९३५ को ३२१अनुच्छेद-३१० अनुसूची का संविधान लागू हुवा। एक राष्ट्रीयता- नागरिकता मे विभाजन हुवा.हिंदू (काफिर) एकता के विरोध मे अली बंधूओ ने जो षड्यंत्र खेला उसके अनुसार,                    
       डॉ.आंबेडकरजी को दौलताबाद के किले मे दर्शन करने जाते समय मुस्लीम चौकीदार ने डॉ.जी को हौदे से पानी लेने से मना कर, "पानी अछूत हो जायेगा !" कहकर जातीय नीचता की भावना को मुसलमान चौकीदार ने जलाया और पानी लेने से रोका,कही भी न छुने की शर्थ पर मुसलमान ने उन्हें उपर जाने दिया।जिसके कारण डॉ.जी ने येवला मे धर्मांतरण की घोषणा की थी। तब भी हिंदू महासभा नेता धर्मवीर मुंजे,शेठ जुगल किशोर बीडला जी ने डॉ.आंबेडकरजी से मिलकर हिंदुत्व सशक्त करने सामाजिक उत्थान के लिये यह घोषणा महामानव आंबेडकरजी ने बीस वर्ष तक क्यों रोकी ? आगे पढ़े !
सावरकरजी ने स्थानबद्धता से पत्र लिखकर,'धर्मांतरण से राष्ट्रांतर होगा ऐसा न करे !' कहा।
भाग्यनगर के.निजाम मीर उस्मान अली खान ने डा.बाबासाहब आंबेडकर को २५ करोड का लालच दिखाकर इस्लाम स्वीकारने का प्रस्ताव भेजा था.यदि दलितवर्ग इस्लाम को ग्रहण करता है तो उन्हें ऊंचे ओहदों पर रखा जाएगा ! इत्यादि सुविधा देने की बात कही थी.डा.अम्बेडकर ने निजाम के प्रस्ताव को यह कहकर ठुकरा दिया कि,"राज्य के दलित भाई आर्थिक दृष्टी से जरूर निर्धन है लेकिन वे मन से निर्धन नही है.रही मेरे इस्लाम ग्रहण करने की बात मेरे जमीर को खरीदने की ताकत किसी में भी नही है !"बाबासाहब आंबेडकरजी ने १८-११-१९४७ तथा २७-११-१९४७ को एक परिपत्रक निकालकर जोर-जबरदस्ती धर्मांतरित किये गए पूर्व अछूतों (दलितों) को आवाहन किया कि, वे वापस घर आवें !.यह पत्र २८ नवम्बर १९४७ के नैशनल स्टैण्डर्ड नामक दैनिक ने प्रकाशित किया गया
था। 
       परिणाम यह हुवा की,मुस्लीम बहुल क्षेत्र निजाम राज मे पुर्वाछुतो के बलात हो रहे धर्मांतरण (मुसलमान बनाने) पर रोक लगाने की धमकी डॉ.आंबेडकरजी ने मक्रणपूर परिषद मे दी ! इस सभा के पश्चात आंबेडकर अनुयायी इराप्पा ने निजाम पर प्राणघातक हमला भी किया था। १० मई १९३७ सावरकरजी की अनिर्बंध मुक्तता पर डॉ.आंबेडकरजी ने दि.११ मई १९३७ के दैनिक जनता मे अभिनंदनपर लेख लिखा। पुणे संविधान मसौदा निर्माण मे सहयोग किया,हिंदूओ के सैनिकीकरण के धर्मवीर डॉ.मुंजेजी के प्रयास को सबल करने पुर्वाछुतो को सेना मे भर्ती पर लगे प्रतिबंध को निकालने डॉ.आम्बेडकर जी ने महाराज्यपाल की भेट ली और महार रेजिमेंट का निर्माण हुवा।ऐसा करने से मुसलमानो का चौदह पाकिस्तान का षड्यंत्र विफल हुवा।
                                 
           स्टेफर्ड क्रिप्स ने महायुद्धोत्तर वसाहत राज्य देने की घोषणा की।तत्पश्चात जिन्ना ने संविधान निर्माण का विरोध करने की घोषणा की,सावरकर-मुंजे-मुखर्जी ने क्रिप्स की भेंट की और संविधान सभा मे सहयोग का विश्वास देकर विघटनवादी मानसिकता को रोकने की कुटनीतिक मांग की। ९ दिसंबर १९४६ डॉ.सच्चिदानंद सिन्हा की अध्यक्षता मे संविधान सभा का प्रथम अधिवेशन हुवा. मुस्लीम लीग ने बहिष्कार किया.( विभाजानोत्तर आश्रयार्थियो का विरोध आज भी जारी है।) २० फरवरी १९४७ 'स्वाधीन हिंदुस्थान अधिनियम १९४७' पारित हुवा और ३ जून को षड्यंत्रकारी नेहरू-बेटन-जिन्ना की देश विभाजन की योजना प्रकट हुई।

      ७ जुलाई को वीर सावरकरजी ने राष्ट्र ध्वज समिती को टेलिग्राम भेजकर,'राष्ट्र का ध्वज भगवा ही हो अर्थात ध्वजपर केसरिया पट्टिका प्रमुखता से हो,कांग्रेस के ध्वज से चरखा निकलकर धर्मचक्र या प्रगती और सामर्थ्यदर्शक हो !' डॉ.आंबेडकरजी को मसौदा समिती का अध्यक्ष पद मिला,पुणे मे बनाया पारित मसौदा वह ले जाते समय हवाई अड्डेपर उन्हें भगवा ध्वज देकर राष्ट्रध्वज बनाने की मांग की गई,उसपर डॉ.जी ने भी आश्वासन दिया था।परंतु सत्ताधारी नेहरू परिवार का वर्चस्व उनकी कोई सूनने तयार नही था।              
जनसंख्या के अनुपात मे विभाजानोत्तर जनसंख्या अदल बदल पर डॉ.आंबेडकर-लियाकत समझोता हुवा,ऑर्गनायझर ने जनमत जांचा,८४६५६ लोगो ने अदल बदल पर सहमती जतायी-६६६ने असहमती जतायी फिर भी नेहरू-गांधी मानने को तय्यार नही हुए,२३ अक्तूबर को राष्ट्रीय मुस्लीमो ने नेहरू से मिलकर विघटनवादी लीग वालो को पाकिस्तान भेजने की मांग की उसे भी कुडेदान मे डाला गया।


संविधान सभा पर नेहरू,पटेल,आझाद का वर्चस्व था।इसलिये संविधान की निव १९३५ के आधार पर स्थापित हुई,उसपर विभाजन का कोई परिणाम नही हुवा।इसलिये डॉ.आंबेडकरजी ने चतुराई से संविधान मे धारा ४४ का सूत्रपात किया,हिन्दू कोड बिल बनाया।विभाजनोत्तर अल्पसंख्यकत्व समाप्त कर हिंदू कोड बिल मे भारतीय पंथ समाविष्ठ किये।समान नागरिकता अंतर्भूत की। 
      राष्ट्रीय नेताओ की अनुपस्थिती में आंबेडकरजी की उपस्थिती संविधान को पूर्ण करने मे सहाय्यक रही।इस काल मे संविधान सभा का अध्यक्ष बिहार हिंदू महासभा नेता रहे डॉ.राजेंद्र प्रसाद को वीर सावरकर विरोध मे रबरस्टेम्प बनाया गया।संविधान सभा सद्स्यो ने ७६३५ सुधार सुझाव दिये,२४७३ पर बंद दरवाजो मे चर्चा हुई।नेहरू को सुधार नही,अपना निर्णय थोपना था ! इसलिये जल्दबाजी मे डॉ.आंबेडकरजी ने २५ नवंबर १९४९ को घोषणा की,"२६ जनवरी १९५० को हिंदुस्थान एक स्वाधीन राष्ट्र होगा !"२६ नवंबर को तत्काल सुधार प्रस्ताव रोककर नेहरू ने संविधान का सरनामा प्रस्तुत किया.इंडियन कोंसीक्वेन्शियल जन.एक्ट ३६६-३७२ के अनुसार,"हिंदुस्थान मे पूर्ववत ब्रिटीश विधी विधान लागू रहेगा."५१६२ संविधान सुधार सुझाव क्या थे? पता नही और इन कमीयो के लिये डॉ.आंबेडकरजी जिम्मेदार नही है।आम्बेडकरजी के अनुयायी जाने, स्वाधीन राष्ट्र मे संविधान समीक्षा के लिये हुवा उनका विरोध कितना अज्ञानतावश था ? ब्रिटीश सोच का विधान अस्थायी जातीय आरक्षण राष्ट्रीयता में विषमता फैलाता है ?

      राष्ट्रीय स्तरपर आर्थिक-सामाजिक पिछडे राष्ट्रीय नागरिकोको योग्यता/आवश्यकतानुसार आरक्षण हो ! इसमें कोई सांप्रदायिक सोच नहीं उलटे धर्म निरपेक्ष मांग है।राष्ट्रीयता में विषमता राजनीती की आवश्यकता है परंतु,संविधान की मांग नहीं !
       नासिक के श्री.वैद्य जी द्वारा हस्तलिखित संविधान की प्रथम प्रत संसद के संग्रहालय मे है,उसमे जर्मनी से आयात स्वर्णपत्र पर बृहोत्तर भारत के शास्ता प्रभू श्रीराम जी का चित्र उत्कीर्ण है,चीन से आयात स्याही से संविधान शब्दबध्द है।संविधान निर्माण तक का खर्च रु.६३,९६,७२९ होकर भी संविधान को अपेक्षित राष्ट्रीयता में समानता, बंधुत्व और नागरी सुरक्षा नही,महिला-निर्धन वर्ग सुरक्षित नहीं,आर्थिक-सामाजिक-राजनितिक तथा राष्ट्रीयता में विषमता है !

        १४ अक्टूबर १९५६ को नागपुर में आंबेडकरजी ने स्वयं अपना और उनके समर्थकों के लिए एक औपचारिक सार्वजनिक समारोह का आयोजन किया। आंबेडकर ने एक बौद्ध भिक्षु कुशीनगर से पधारे महास्थविर चंद्रमणि जी से पारंपरिक तरीके से तीन रत्न ग्रहण और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध पंथ (धम्म) ग्रहण किया।इस समय बौध्द भिक्षुओ ने एक पत्रक जारी किया। सावरकरजी की आख्या "धर्मांतरण से राष्ट्रांतरण होगा !" के अनुसार यह धर्मांतरण नहीं,मतांतरण है ! क्योकि,बौध्द मत हिंदुत्व की शाखा है ! १९४८ से आंबेडकर मधुमेह से पीड़ित थे। जून से अक्टूबर १९५४ तक वह गंभीर व्याधिग्रस्त रहे इस दौरान वो नैदानिक अवसाद और कमजोर होती दृष्टि से ग्रस्त थे। ६ दिसंबर १९५६ को आंबेडकरजी महानिर्वाण हुआ और हिंदुराष्ट्र की अपरिमित हानि ! 
ये कुछ वाक्य बाबा साहेब आंबेडकर ने इस्लाम के लिए कहे थे.
हिन्दू मुस्लिम एकता एक अंसभव कार्य हैं भारत से समस्त मुसलमानों को पाकिस्तान भेजना और हिन्दुओं को वहां से बुलाना ही एक हल है। यदि यूनान तुर्की और बुल्गारिया जैसे कम साधनों वाले छोटे छोटे देश यह कर सकते हैं तो हमारे लिए कोई कठिनाई नहीं। साम्प्रदायिक शांति हेतु अदला बदली के इस महत्वपूर्ण कार्य को न अपनाना अत्यंत उपहासास्पद होगा। विभाजन के बाद भी भारत में साम्प्रदायिक समस्या बनी रहेगी। पाकिस्तान में रुके हुए अल्पसंख्यक हिन्दुओं की सुरक्षा कैसे होगी? मुसलमानों के लिए हिन्दू काफिर सम्मान के योग्य नहीं है। मुसलमान की भातृ भावना केवल मुसमलमानों के लिए है। कुरान गैर मुसलमानों को मित्र बनाने का विरोधी है , इसीलिए हिन्दू सिर्फ घृणा और शत्रुता के योग्य है। मुसलामनों के निष्ठा भी केवल मुस्लिम देश के प्रति होती है। इस्लाम सच्चे मुसलमानो हेतु भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना निकट संबधी मानने की आज्ञा नहीं देता। संभवतः यही कारण था कि मौलाना मौहम्मद अली जैसे भारतीय मुसलमान भी अपेन शरीर को भारत की अपेक्षा येरूसलम में दफनाना अधिक पसन्द किया। कांग्रेस में मुसलमानों की स्थिति एक साम्प्रदायिक चौकी जैसी है। गुण्डागर्दी मुस्लिम राजनीति का एक स्थापित तरीका हो गया है। इस्लामी कानून समान सुधार के विरोधी हैं। धर्म निरपेक्षता को नहीं मानते। मुस्लिम कानूनों के अनुसार भारत हिन्दुओं और मुसलमानों की समान मातृभूमि नहीं हो सकती। वे भारत जैसे गैर मुस्लिम देश को इस्लामिक देश बनाने में जिहाद आतंकवाद का संकोच नहीं करते।
प्रमाण सार डा आंबेडकर सम्पूर्ण वाङ्गमय, खण्ड १५१ —
* महामानव डॉक्टर आम्बेडकर लिखित थॉट्स ऑन पाकिस्तान पृष्ठ ३४९ से ३५२ पर अंकित कुछ विचार ↲
   हिन्दुओ को यह बोध नहीं होता परंतु ,यह अनुभव सिध्द है कि ,'हिन्दू व मुसलमान न तो,स्वभाव से एक है न ही अध्यात्मिक अनुभव में और न ही राजनितिक एकता की इच्छाशक्ति में !'
    हिन्दू इस भ्रम को पाले है कि,'पाकिस्तान मात्र जिन्ना की ही एक सनक है और इसका समर्थन मुस्लिम जनता में है तथा हिन्दू-मुस्लिम समस्या का शांतिपूर्ण हल संभव नहीं है !"
     हिन्दू यदि अपना कर्तव्य नहीं निभाते है तो,वे वही परिणाम भुगतेंगे जिनके लिए वे आज यूरोप पर हंस रहे है और यूरोप की ही भाँति नष्ट भी हो जाएंगे !'
भारतीयों में आपसी एकता के लिए कोई उत्साह नहीं है। आपसी मेल की कोई कामना नहीं। समान वेशभूषा,समान भाषा की कोई इच्छा नहीं है !जो बाते स्थानीय और लघु पहचान बनाती है। उन्हें त्यागकर जो बाते समान और राष्ट्रीय है उन्हें अपनाने की कोई इच्छा नहीं।' पृष्ठ १७८ थॉट्स ऑन पाकिस्तान
       "मुझमे और सावरकर में इस प्रश्न पर न केवल सहमती है बल्कि सहयोग भी है कि,हिन्दू समाज को एकजुट और संगठित किया जाए , और हिन्दू धर्म अन्य मजहबो के आक्रमणों से आत्मरक्षा के लिए तैयार किया जाये !" ब्लिट्ज १५ मई १९३३ 
        "मैं वही मार्ग चुनूंगा जो देश के लिए सबसे कम हानिकर हो। और बौध्दमत में दीक्षित होकर मैं देश को सबसे बड़ा लाभ पहुंचा रहा हूँ। क्योकि,बौध्दमत भारतीय संस्कृती का अभिन्न अंग है ! मैंने सावधानी बरती है कि ,मेरे पंथ -परिवर्तन से इस देश की संस्कृती और इतिहास को कोई हानि न पहुंचे ! (जीवन और लक्ष्य पृष्ठ -४९८ )
          " अनुसुचित जाति के लोगों में,मुसलमानों को अपना हितैषी मानने की आदत सी बन गई है।केवल इसलिए कि,उनके मनों में हिन्दूओं के प्रति रोष है। यह द्रुष्टिकोण ठीक नहीं है !" (ब्लिटज- २४ अप्रेल १९३३)

     संविधान के अनुसार राष्ट्रीयता में विषमता समाप्त करने के लिए धारा ४४ लागु होगी तब उन्हें सच्चे अर्थो में श्रध्दा सुमन अर्पित होगे ! हिन्दू महासभा अकेले ही १९८५ से सर्वोच्च न्यायालय में लड़ रही है और जाती-धर्म की विषमतावादी राजनीती कर रहे सांप्रदायिक हिन्दू महासभा को जातिवादी-सांप्रदायिक कहकर उसकी राजनीतिक मान्यता नष्ट हो या अस्तित्व नष्ट या घुसपैठिये भेजकर समानांतर हिन्दू महासभा बनाकर कब्ज़ा करने के अविरत प्रयत्नशील है !
हिन्दू महासभा द्वारा आंबेडकर महानिर्वाण पर दादर चैत्यभूमी के लिए रेल मंत्रालय से पत्राचार कर विशेष चैत्यभूमी ट्रेन छोड़ी जा रही है ! ↷

http://www.jansatta.com/national/assaduddin-owaisi-in-lucknow/80814/

ओवैसी बोले- हिंदुस्तान जिंदाबाद और जय हिंद, कार्यकर्ताओं को दिया जय भीम-जय मीम का नारा

कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए ओवैसी ने कहा,'हमें देशभक्‍त होने का प्रमाण पत्र नहीं चाहिए। हमें किसी प्रूफ की जरूरत नहीं है। जो हमारी देशभक्ति पर सवाल उठा रहे हैं वे गद्दार हैं।



वैलेंटाइन, फाँसी डे या बसंत पंचमी क्या मनाएंगे ?


वैलेंटाइन डे की कहानी::

यूरोप (और अमेरिका) का समाज जो है वो रखैलों (Kept) में विश्वास करता है, पत्नियों में नहीं. यूरोप और अमेरिका में आपको शायद ही ऐसा कोई पुरुष या स्त्री मिले जिसकी एक शादी हुई हो ? जिनका एक पुरुष से या एक स्त्री से सम्बन्ध रहा हो और ये एक दो नहीं हजारों साल की परम्परा है उनके यहाँ | आपने एक शब्द सुना होगा "Live in Relationship" ये शब्द आज कल हमारे देश में भी नव-अभजात्य वगर् में चल रहा है, इसका मतलब होता है कि "बिना शादी के पती-पत्नी की तरह से रहना" | तो उनके यहाँ, मतलब यूरोप और अमेरिका में ये परंपरा आज भी चलती है,खुद प्लेटो (एक यूरोपीय दार्शनिक) का एक स्त्री से सम्बन्ध नहीं रहा, प्लेटो ने लिखा है कि "मेरा 20-22 स्त्रीयों से सम्बन्ध रहा है" अरस्तु भी यही कहता है, देकातेर् भी यही कहता है, और रूसो ने तो अपनी आत्मकथा में लिखा है कि "एक स्त्री के साथ रहना, ये तो कभी संभव ही नहीं हो सकता, It's Highly Impossible" | तो वहां एक पत्नि जैसा कुछ होता नहीं | और इन सभी महान दार्शनिकों का तो कहना है कि "स्त्री में तो आत्मा ही नहीं होती" "स्त्री तो मेज और कुर्सी के समान हैं, जब पुराने से मन भर गया तो पुराना हटा के नया ले आये " | तो बीच-बीच में यूरोप में कुछ-कुछ ऐसे लोग निकले जिन्होंने इन बातों का विरोध किया और इन रहन-सहन की व्यवस्थाओं पर कड़ी टिप्पणी की | उन कुछ लोगों में से एक ऐसे ही यूरोपियन व्यक्ति थे जो आज से लगभग 1500 साल पहले पैदा हुए, उनका नाम था - वैलेंटाइन | और ये कहानी है 478 AD (after death) की, यानि ईशा की मृत्यु के बाद |
स्वदेशी अपनाओ देश बचाओ !

उस वैलेंटाइन नाम के महापुरुष का कहना था कि "हम लोग (यूरोप के लोग) जो शारीरिक सम्बन्ध रखते हैं कुत्तों की तरह से, जानवरों की तरह से, ये अच्छा नहीं है, इससे सेक्स-जनित रोग (veneral disease) होते हैं, इनको सुधारो, एक पति-एक पत्नी के साथ रहो, विवाह कर के रहो, शारीरिक संबंधो को उसके बाद ही शुरू करो" ऐसी-ऐसी बातें वो करते थे और वो वैलेंटाइन महाशय उन सभी लोगों को ये सब सिखाते थे, बताते थे, जो उनके पास आते थे, रोज उनका भाषण यही चलता था रोम में घूम-घूम कर | संयोग से वो चर्च के पादरी हो गए तो चर्च में आने वाले हर व्यक्ति को यही बताते थे, तो लोग उनसे पूछते थे कि ये वायरस आप में कहाँ से घुस गया, ये तो हमारे यूरोप में कहीं नहीं है, तो वो कहते थे कि "आजकल मैं भारतीय सभ्यता और दशर्न का अध्ययन कर रहा हूँ, और मुझे लगता है कि वो परफेक्ट है, और इसिलए मैं चाहता हूँ कि आप लोग इसे मानो", तो कुछ लोग उनकी बात को मानते थे, तो जो लोग उनकी बात को मानते थे, उनकी शादियाँ वो चर्च में कराते थे और एक-दो नहीं उन्होंने सैकड़ों शादियाँ करवाई थी |

जिस समय वैलेंटाइन हुए, उस समय रोम का राजा था क्लौड़ीयस, क्लौड़ीयस ने कहा कि "ये जो आदमी है-वैलेंटाइन, ये हमारे यूरोप की परंपरा को बिगाड़ रहा है, हम बिना शादी के रहने वाले लोग हैं, मौज-मजे में डूबे रहने वाले लोग हैं, और ये शादियाँ करवाता फ़िर रहा है, ये तो अपसंस्कृति फैला रहा है, हमारी संस्कृति को नष्ट कर रहा है", तो क्लौड़ीयस ने आदेश दिया कि "जाओ वैलेंटाइन को पकड़ के लाओ ", तो उसके सैनिक वैलेंटाइन को पकड़ के ले आये | क्लौड़ीयस नेवैलेंटाइन से कहा कि "ये तुम क्या गलत काम कर रहे हो ? तुम अधमर् फैला रहे हो, अपसंस्कृति ला रहे हो" तो वैलेंटाइन ने कहा कि "मुझे लगता है कि ये ठीक है" , क्लौड़ीयस ने उसकी एक बात न सुनी और उसने वैलेंटाइन को फाँसी की सजा दे दी, आरोप क्या था कि वो बच्चों की शादियाँ कराते थे, मतलब शादी करना जुर्म था | क्लौड़ीयस ने उन सभी बच्चों को बुलाया, जिनकी शादी वैलेंटाइन ने करवाई थी और उन सभी के सामने वैलेंटाइन को 14 फ़रवरी 498 ईःवी को फाँसी दे दिया गया |

पता नहीं आप में से कितने लोगों को मालूम है कि पूरे यूरोप में 1950 ईःवी तक खुले मैदान में, सावर्जानिक तौर पर फाँसी देने की परंपरा थी | तो जिन बच्चों ने वैलेंटाइन के कहने पर शादी की थी वो बहुत दुखी हुए और उन सब ने उस वैलेंटाइन की दुखद याद में 14 फ़रवरी को वैलेंटाइन डे मनाना शुरू किया तो उस दिन से यूरोप में वैलेंटाइन डे
मनाया जाता है | मतलब ये हुआ कि वैलेंटाइन, जो कि यूरोप में शादियाँ करवाते फ़िरते थे, चूकी राजा ने उनको फाँसी की सजा दे दी, तो उनकी याद में वैलेंटाइन डे मनाया जाता है | ये था वैलेंटाइन डे का इतिहास और इसके पीछे का आधार |
अब यही वैलेंटाइन डे भारत आ गया है जहाँ शादी होना एकदम सामान्य बात है यहाँ तो कोई बिना शादी के घूमता हो तो अद्भुत या अचरज लगे लेकिन यूरोप में शादी होना ही सबसे असामान्य बात है |

अब ये वैलेंटाइन डे हमारे स्कूलों में कॉलजों में आ गया है और बड़े धूम-धाम से मनाया जा रहा है और हमारे यहाँ के लड़के-लड़िकयां बिना सोचे-समझे एक दुसरे को वैलेंटाइन डे का कार्ड दे रहे हैं | और जो कार्ड होता है उसमे लिखा होता है " Would You Be My Valentine" जिसका मतलब होता है "क्या आप मुझसे शादी करेंगे ?" | मतलब तो किसी को मालूम होता नहीं है, वो समझते हैं कि जिससे हम प्यार करते हैं उन्हें ये कार्ड देना चाहिए तो वो इसी कार्ड को अपने मम्मी-पापा को भी दे देते हैं, दादा-दादी को भी दे देते हैं और एक दो नहीं दस-बीस लोगों को ये ही कार्ड वो दे देते हैं | और इस धंधे में बड़ी-बड़ी कंपिनयाँ लग गयी हैं जिनको कार्ड बेचना है, जिनको गिफ्ट बेचना है, जिनको चाकलेट बेचनी हैं और टेलीविजन चैनल वालों ने इसका धुआधार प्रचार कर दिया | ये सब लिखने के पीछे का उद्देँशय यही है कि नक़ल आप करें तो उसमे अकल भी लगा लिया करें | उनके यहाँ साधारणतया शादियाँ नहीं होती है और जो शादी करते हैं वो वैलेंटाइन डे मनाते हैं लेकिन हम भारत में क्यों ?
Rajiv Dikshit


केले ,ककड़ी जैसे फलों से दूर रहें मुस्लिम महिलाएं !---
यूरोप के एक मौलवी ने फतवा जारी कर मुस्लिम महिलाओं को ऐसे फलों और सब्जियों को छूने से मना किया है जो पुरुषों के जननांग का आभास देते हैं. मौलवी ने महिलाओं को यौन विचारों ( Self Praictice) से दूर रहने के तहत यह फतवा जारी किया है .इजिप्ट की एक न्यूज वेव साईट ने बुधवार को उक्त मौलवी के फतवे का हवाला देते हुए यह जानकारी दी है . मौलवी ने किसी धार्मिक प्रकाशन में लिखे ल्र्ख में ऐसी बातें कही हैं ..उक्त मौलवी का नाम नहीं बताया गया है .उसके अनुसार महिलाओं को केले और ककड़ी के पास भी नहीं जाना चाहिए .यदि महिलायें इन खाद्य पदार्थों को खाना चाहें तो ,कोई तीसरा व्यक्ति ,जो उनका सम्बन्धी पुरुष जैसे उसका पति ,या पिता हो ,इन वस्तुओं को छोटे छोटे टुकड़ों में काट कर उन्हें दे .ऐसा फतवे में कहा है .उक्तमौलवी के अनुसार केला और ककड़ी पुरुष जननांग की तरह दिखते हैं .और इसलिए महिलायें उत्तेजित हो सकती हैं ..या उनके मन में सेक्स का विचार आ सकता है ..उक्त मौलवी ने यह भी कहा है कि,महिलाओं को गाजर ,तुरई जैसी सब्जियों से भी बचना चाहिए .
Ref. ( दैनिक जागरण -8 दिसंबर 2011 पेज 9 )


अब वैलेंटाईन डे या बसंत पंचमी को राधा कृष्ण का अध्यात्मिक अध्ययन करोगे ? Difence of Love Jihad

हिन्दू महासभा का भाग्यनगर मुक्ति आन्दोलन

१७ सितम्बर १९४८ को मराठवाडा निजाम की चंगुल से आजाद हो गया.उसमें स्वातंत्र्यवीर सावरकर एवं बाबासाहब आंबेडकरजी की क्या भूमिका रही आये,देखें:-
वीर सावरकर ने ११ अक्तूबर १९३८ को भागानगर[हैदराबाद] नि:शस्त्र प्रतिकार मंडल की स्थापना की घोषणा पूणे की शनिवारवाडा की सभा में कर दी.
श्री वाय.डी.जोशी और श्री आ.गो.केसकर की प्रेरणा इसके पीछे रही है.
वे चाहते थे कि वीर सावरकर हैदराबाद के नि:शस्त्र सत्याग्रह का नेतृत्व करे.
इस नि:शस्त्र प्रतिकार मंडल के अध्यक्ष पद पर मराठा अखबार के संपादक श्री ग.वि.केतकर और सचिव के पद पर नथुराम गोडसे को नियुक्त किया.
अन्य सभासदों में श्री शंकर दाते और मसूरकर महाराज शामिल थे.
मण्डल के सदस्योंने महाराष्ट्र के प्रमुख शहरों और गांव-गांव में जाकर नि:शस्त्र सत्याग्रह के प्रति चेतना जगाने के कार्य को प्रारम्भ कर दिया.
हैदराबाद में हो रहे हिन्दुओंपर अत्याचार की कहानी घर-घर जाकर बताना,विग्यापन छपवाकर बांटना,चन्दा इकट्ठा करना,सत्याग्रह के लिए स्वयंसेवकों को तय्यार करना,इत्यादि कार्य बडी तीव्र गति से प्रारम्भ किए गए.
२५ नवम्बर १९३८ के एक वक्तव्य में स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने नि:शस्त्र सत्याग्रह की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा:-
"राज्य में हिंदुओं के समूल उच्छाद पर क्या कहें!हिंदुओं ने अपने उपर हो रहे अन्याय के प्रति कानूनी ढंग से सभी उपाय किये है.जब निजाम सरकार हिंदू प्रजा की रक्षा के प्रति अपना उत्तरदायित्व ही नही समझती तो विवश होकर सत्याग्रह के लिए कदम उठाना पड रहा है.राज्य में हो रहे हिंदुओंके दमन पर आर्यसमाज ने बाहर के हिंदुओं का ध्यान आकृष्ट किया है.उसके हजारो कार्यकर्ता जेलों में बंद किये जा चुके है.कईयों को मौत के घाट उतार दिया गया है."
स्वातंत्र्यवीर सावरकर की अध्यक्षता में २८ और २९ दिसम्बर १९३८ को नागपुर में हिंदुमहासभा का अधिवेशन सम्पन्न हुआ.
इसमें भागानगर[हैद्राबाद]नि:शस्त्र प्रतिकार मंडल के आंदोलन को मान्यता दी गई.
श्री ग.वि.केतकर की अध्यक्षता में गठित मंडल को विसर्जित कर इसकी पुनर्रचना की गयी.
१९जनवरी १९३९ से यह आंदोलन हिंदू महासभा के तत्वावधान में प्रारम्भ करने का निश्चय किया गया.
सर गोकुलचंद नारंग,भाई परमानंद,इंद्रप्रकाश और चांदकरण शारदा की एक समिती सावरकर जी ने बनाई.सावरकर जी के निर्देशानुसार अनेक स्थानों पर महासभा की ओर से आंदोलन किए गए.
स्वयंसेवकों के लिए शिविर खोले गए.
सावरकरजी ने धूलपेठ दंगों की निष्पक्ष जांच के लिए शंकर उपाख्य मामाराव दाते,वि.स.मोडक,ग.स.काले और अन्यों को भेजा.
उनके रिपोर्ट के अनुसार स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने ११ जनवरी सन १९३९ को हैद्राबाद के प्रधान मंत्री श्री अकबर हैदरी को पत्र लिखकर राज्य में हिंदुओं पर हो रहे अन्याय,अत्याचार की शिकायत की तथा इस पर रोक लगाने का अनुरोध किया.उन्होंने पत्र में लिखा-
"मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि महासभा को राज्य के मुसलमानों अथवा निजाम के प्रति कोई द्वेष नही है,महासभा तो यह चाहती है कि चाहे वह मुसलमान हो या हिन्दू सभी को समान रूप से प्रगति का अवसर मिले,नौकरियों में वर्ग विशेष को ध्यान में रखकर स्थान न दिया जाय,बल्कि योग्यता के आधार पर नौकरियों में समावेश हो,न्याय और समान तत्व पर कायदे कानून की रचना हो.महासभा वैधता-पूर्ण उपायों द्वारा सम्मानपूर्वक समझौता करने के पक्ष में है.यदि यह प्रस्ताव सरकार ठुकराती है तो विवश होकर सत्याग्रह तीव्र करना पडेगा."
इस पत्र के उत्तर में अकबर हैदरी ने हिन्दुओंपर हो रहे अन्याय अत्याचार की बात को अस्वीकार कर दिया,भेदभाव की नीति चल रही है इस बात से भी इन्कार किया.
इससे सावरकरजी ने आंदोलन को और तीव्र किया.
राज्य में स्पष्ट रूप से नागरिक अधिकारों की मांग सावरकरजी ने रखी.
सावरकर जी समस्त भारतीयों को निजाम के खिलाफ खडा करना चाहते थे और इस मजहबी हुकूमत को नष्ट कर प्रजा का शासन लाना चाहते थे.
इस कार्य के प्रचार-प्रसार के लिए श्री भिडे और नथुराम गोडसे को दक्षिण महाराष्ट्र में तथा श्री दाते और बाबूराव काले को बारसी के दौरे पर भेजा गया.
पूरे महाराष्ट्र से कार्यकर्ताओं के जत्थे हैदराबाद की ओर निकल पडे.
हैदराबाद में वंदे मातरम गीत गाने पर प्रतिबंध था.
अन्य कार्यकर्ताओं के साथ नथुराम गोडसे ने हैदराबाद जाकर वंदे मातरम गीत गाया,उसे २५ कोडों की सजा सुनायी गयी.
हर कोडॆ की फटकार के साथ उसने वंदे मातरम की उंची आवाज लगायी
.[अंत में जब सरदार पटेल ने निजाम के खिलाफ पुलिस ऐक्शन लिया तब नथुराम ने कहा कि महात्माजी के रहते यह कार्रवाई करना सरदार पटेल के लिए बेहद कठिन था.]
१० महिनों में कुल ४००० स्वयंसेवक जेलों में जा चुके थे.
पूना,मंबई,नागपूर,अकोला आदि स्थानों पर स्वयंसेवकों को प्रशिक्षण दिया गया और हैद्राबाद,गुलबर्गा,बीदर,नांदेड,हदगांव,मुरुम,तुलजापुर,जालना,परभणी,औरंगाबाद,वैजापुर,पैठण आदि स्थानों पर सावरकर जी के निर्देशानुसार सत्याग्रह कर जेल भरे गये.
१३ सत्याग्रहियों की जेलों में मृत्यू हो गई.
कई जगह सत्याग्रहियों के उपर रजाकारी गुंडों ने हमला किया.
सावरकरजी ने २४ अप्रैल १९३९ को सरकार को आगाह किया कि यदि सरकार शांतिपूर्ण तरीके से सत्याग्रह कर रहे सत्याग्रहियो को गुंडों के हाथ सौंपकर अपने उत्तरदायित्व से मुकरना चाहती है तो इसकी जिम्मेदारी सरकार की होगी.सत्याग्रहियों की रक्षा करना सरकार का कर्तव्य है.सरकार सत्याग्रहियों को हिंसा और दमन के द्वारा आतंकित कर उन्हें सत्याग्रह से रोक देगी ऐसा समझना उसकी भूल होगी.इससे सत्याग्रह शिथिल होने की बजाय और तीव्र होगा.हिन्दुओं के कष्टों का उचित निराकरण ही राज्य में स्थायी शांति ला सकता है.
डा.आंबेडकर जी की भूमिका:-मराठवाडा के साथ पूरा हैदराबाद संस्थान का दलितवर्ग एक तरफ निर्धनता और दूसरी तरफ निजामी अत्याचार,दो पाटों के बीच पिसा जा रहा था.निजाम मीर उस्मान अली खान ने डा.बाबासाहब आंबेडकर को २५ करोड का लालच दिखाकर इस्लाम स्वीकारने का प्रस्ताव भेजा था.यदि दलितवर्ग इस्लाम को ग्रहण करता है तो उन्हें ऊंचे ओहदों पर रखा जाएगा इत्यादि सुविधा देने की बात कही थी.डा.अम्बेडकर ने निजाम के प्रस्ताव को यह कहकर ठुकरा दिया कि,"राज्य के दलित भाई आर्थिक दृष्टी से जरूर निर्धन है लेकिन वे मन से निर्धन नही है.रही मेरे इस्लाम ग्रहण करने की बात मेरे जमीर को खरीदने की ताकत किसी में भी नही है."बाबासाहब अम्बेडकर ने १८-११-१९४७ तथा २७-११-१९४७ को एक परिपत्र निकालकर जोर-जबरदस्ती धर्मांतरित किये हुये दलितों को आवाहन किया की वे वापस घर आवें.यह पत्र २८नवम्बर के नैशनल स्टैण्डर्ड नामक दैनिक में प्रकाशित किया गया.
सावरकरजी के अस्वस्थ रहते हुए इस आंदोलन का नेतृत्व आगे चलकर आर्य समाज के पं नरेंद्रजी ने और अंत में स्टेट कांग्रेस के स्वामी रामानंद तीर्थ ने किया.इस आंदोलन से कई राष्ट्रवादी मुस्लिम भी जुडे,जैसे की-पत्रकार शहीद शोएब उल्ला खान,अजमेर के सय्यद फय्याज अली,मौलाना सिराजुल हसन तिरमिजी,पंजाब के समाजवादी कार्यकर्ता मुंशी अहमद्दीन,कराची के मियां मौसन अली,सातारा के मौलाना कमरुद्दिन,इत्यादि.अंत में सरदार पटेल ने लिए हुए पुलिस ऐक्शन के बाद निजाम साहब शरण आ गये और मराठवाडा आजाद हो गया.
संदर्भ:
१.भारत सरकार द्वारा प्रकाशित हेडगेवार चरित्र,पृ.क्र.१३८,
२.चंद्रशेखर लोखंडे लिखित हैदराबाद मुक्तिसंग्राम का इतिहास,
३.मासिक ब्रह्मपंथ,विजय जोशी,
४.आर्यसमाज और डा,अम्बेडकर-कुशलदेव शास्त्री,
५.डा.आम्बेडकरांची समग्र भाषणे,खंड ७;
६.नथुराम गोडसे-अंतिम निवेदन.
लेखक पूर्व सेनानी Madhusudan Cherekar द्वारा 5 सितंबर 2012 को प्रकाशित 

Monday 14 March 2016

ISIS = RSS ? गुलाम नबी आझाद की टिपण्णी- हिन्दू महासभा


रास्वसंघ की जननी हिन्दू महासभा ने गुलाम नबी आझाद की टिपण्णी पर कांग्रेस की मुस्लिम धर्मान्धता का आरोप लगाया ! राष्ट्रिय प्रवक्ता प्रमोद पंडित जोशी ने ब्लॉग के माध्यम से प्रेस नोट जारी कर कहा है।
कांग्रेस के गुलाम और कहने के नबी ,जमीयत उलेमा ए हिन्द के मंच से संघ की तुलना ISIS से कर रहे थे।जमीयत के मंच पर तमाम धार्मिक नेताओं के साथ ही कांग्रेस समेत तमाम राजनीतिक पार्टियों के नेता भी मौजूद थे।इस कार्यक्रम के मंच पर जमीयत के अध्यक्ष अरशद मदनी और महमूद मदनी समेत यूपी की समाजवादी पार्टी सरकार में कैबिनेट मंत्री शाहिद मंजूर, कांग्रेस प्रवक्ता मीम अफजल और नवाब इकबाल महमूद जैसे कई नेता मौजूद थे।सीपीएम नेता मोहम्मद सलीम भी अर्थात सर्व दलीय मुस्लिम संमेलन में, कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने जमीयत के मंच पर पार्टी अध्यक्षा सोनिया गांधी का लिखा संदेश भी पढ़ा। कांग्रेस ने इस मंच पर खड़े गुलाम को धर्मांध नहीं कहा ! यही आश्चर्य है ! क्योकि,यही वह संघटन है जो मुंबई आझाद मैदान दंगाईयो को मुक्त करने के लिए न्यायालयीन सहायता कर रहा है।२६/११ के हमलावर रहे कांग्रेस के कारन आसाम,बंगाल,कश्मीर में घुसपैठ और आतंकी घटनाओ को प्रोत्साहन मिलता रहा है। मीम के सांसद और विधायक के आंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के साथ सम्बन्ध है। जिसे कांग्रेस ने और बाद में अब भाजप ने सहायता ली और दी है।

* रास्वसंघ स्थापना और हिन्दू महासभा  
अखिल भारत हिन्दू महासभा वरिष्ठ नेता,राष्ट्रीय अध्यक्ष धर्मवीर डॉक्टर बा शि मुंजे जी के हिन्दू महासभा अधिवेशन पटना प्रस्ताव के साथ सन १९२२ भाई परमानंदजी द्वारा लाहोर में स्थापित "हिन्दू स्वयंसेवक संघ",तरुण हिन्दू सभा संस्थापक गणेश दामोदर सावरकर उपाख्य बाबाराव,गढ़ मुक्तेश्वर दल संस्थापक संत श्री पाँचलेगांवकर महाराज के सामायिकीकरण के साथ मुंजेजी के मानसपुत्र डॉक्टर ; स्वातंत्र्य साप्ताहिक के संपादक हेडगेवारजी की शिरगांव-रत्नागिरी में स्थानबध्द वीर सावरकरजी से मंत्रणा कर लौटने के पश्चात उनके नेतृत्व को संघचालक के जिम्मेदारी के साथ हिन्दू महासभा की पूरक गैर राजनीतिक,हिन्दू संरक्षक संस्था RSS विजयादशमी सन १९२५ को मोहिते बाड़ा, नागपुर में स्थापित हुई।
क्रांतिकारी बाबाराव सावरकरजी के प्रस्ताव पर विदेश में "हिन्दू स्वयंसेवक संघ" और भारत में "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ" नामकरण हुआ तथा बाबारावजी ने लिखी मातृवंदना रा स्व संघ ने तथा ध्वज वंदना महासभा ने स्वीकार की है।अखिल भारत हिन्दू महासभा पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रा रामसिंगजी ने रा स्व संघ की प्रथम शाखा देहली में,हिन्दू महासभा भवन में लगाई थी। फिर नागपुर से भेजे गए देहली संघ प्रचारक बसंतराव ओक दो वर्ष हिन्दू महासभा भवन में संघ की शाखा लगाया करते थे। {संदर्भ-हिंदुत्व की यात्रा-ले गुरुदत्त}
रा स्व संघ और महासभा परस्पर पूरक थे। {संदर्भ-मासिक जनज्ञान दिसंबर १९९८ ले शिवकुमार मिश्र} संघ के विस्तार को ध्यान में रखकर हिन्दू महासभा के संगठनात्मक विस्तार को अनुलक्षित किया गया। इसलिए संघ का महासभा में विलय करके महासभा को सशक्त करते हुए डॉक्टर हेडगेवारजी के नेतृत्व में ही "हिन्दू मिलिशिया" का संगठन खड़ा करने का प्रयास संघ प्रवर्तक धर्मवीर मुंजेजी ने सन १९३९ में किया था। {संदर्भ-धर्मवीर मुंजे जन्म शताब्दी विशेषांक ले वा कृ दाणी} हेडगेवारजी की असहमती के कारन तथा आगे उनकी असमय मृत्यु के पश्चात हिन्दू संगठन तथा हिन्दू राजनीती-अखंड भारत के लिए हानिकारक सिध्द हुई।
सन १९३८ नागपुर अधिवेशन में वीर सावरकर अखिल भारत हिन्दू महासभा के दूसरी बार राष्ट्रिय अध्यक्ष चुने गए तब सर संघचालक हेडगेवारजी मध्य भारत हिन्दू महासभा उपाध्यक्ष थे। उनके आयोजन पर नागपुर में वीर सावरकरजी को सशस्त्र संघ स्वयंसेवको ने प्रदर्शन के साथ मानवंदना दी थी । इस शोभायात्रा में हाथी पर बैठकर हिन्दू महासभाई बालासाहेब देवरसजी ने शक्कर बांटी थी।
३०/३१ दिसंबर १९३९ कोलकाता हिन्दू महासभा अधिवेशन के लिए वीर सावरकर तीसरी बार अध्यक्ष चुने गए।इस अधिवेशन में पदाधिकारियों के भी चुनाव हुए। डॉक्टर हेडगेवार राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद पर तो,संघ के वरिष्ठ अधिकारी एम एम घटाटेजी राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए। हिन्दू महासभा भवन कार्यालय मंत्री रहे स्व मा स गोलवलकरजी महामंत्री पद का चुनाव हार गए और इस हार का ठीकरा उन्होंने वीर सावरकरजी पर फोड़कर हिन्दू महासभा से पृथक हुए।राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हेडगेवारजी ने उन्हें क्रोध शांत करने संघ कार्यवाहक स्व पिंगलेजी के साथ सहयोग के लिए भेजा। दुर्भाग्यवश २१ जून १९४० को अकाल समय हिन्दू महासभा राष्ट्रिय उपाध्यक्ष हेडगेवारजी का निधन हुआ। ऐसे में पिंगलेजी को सरसंघ चालक की जिम्मेदारी संभालनी थी।परंतु, गोलवलकरजी उस स्थान पर विराजे। इनके कारन हिन्दू महासभा और संघ में सावरकरजी के विरोध के लिए दूरिया बढ़ी। {संदर्भ-हिन्दू सभा वार्ता २२ फरवरी १९८८ लेखक अधिवक्ता भगवानशरण अवस्थी}

गोलवलकरजी के निकटवर्ती स्वयंसेवक,पत्रकार,लेखक गंगाधर इन्दूरकरजी ने "रा स्व संघ-अतीत और वर्तमान" पुस्तक लिखी है। वह लिखते है,"वीर सावरकरजी की सैनिकीकरण की योजना के विरोध का कारन,यह भी हो सकता है कि,उन दिनों भारतभर में और खासकर महाराष्ट्र में वीर सावरकरजी के विचारों की जबरदस्त छाप थी। उनके व्यक्तित्व और वाणी का जादू युवकोंपर चल रहा था। युवक वर्ग उनसे बहुत आकर्षित हो रहा था ऐसे में,गोलवलकरजी को लगा हो सकता है कि,यह प्रभाव इसप्रकार बढ़ता गया तो,युवकों पर संघ की छाप कम हो जाएंगी। संभवतः इसलिए हिन्दू महासभा और सावरकरजी से असहयोग की नीति अपनाई हों।" इस विषयपर इन्दूरकरजी ने संघ के वरिष्ठ अधिकारी अप्पा पेंडसे से हुई वार्तालाप का उल्लेख करते हुए लिखा है कि,"ऐसा करके गोलवलकरजी ने युवकोंपर सावरकरजी की छाप पड़ने से तो,बचा लिया। पर ऐसा करके गोलवलकरजी ने संघ को अपने उद्देश्य से दूर कर दिया।"

इस कारणवश संघ प्रवर्तक धर्मवीर मुंजेजी ने १७ मार्च १९४० को नागपुर में जगन्नाथप्रसाद वर्मा के संचालन में "रामसेना" का गठन किया और हिन्दू महासभा-सावरकर समर्थक युवकों को इसमें समाविष्ट किया। बंगाल में "हिन्दू रक्षा दल" गठित करने में सावरकर भक्त डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने सहयोग किया। सावरकर जन्म दिन के उपलक्ष में अमरवीर पंडित नथुराम गोडसेजी ने सावरकर निष्ठ हिंदुओं का संमेलन पुणे में १० मई से २८ मई १९४२ संपन्न करने समारोह किया उसके कार्यवाह वासुदेव बलवंत गोगटे {हॉटसन की गोली मारकर वध करनेवाले} थे।सावरकरजी की उपस्थिती में शिवराम विष्णु मोडकजी को "हिन्दुराष्ट्र दल" दल चालक घोषित किया गया। ( इसप्रकार संघ स्वयंसेवक रहे गोडसेजी संघ कार्यकर्ता नहीं थे ! यह कहने का अवसर संघ को प्राप्त हुआ। ) शेष रामसेना हिन्दुराष्ट्र दल में विलीन हुई और डॉक्टर दत्तात्रय सदाशिव परचुरेजी ने मध्यप्रांत में "हिन्दुराष्ट्र सेना" बनाकर मध्यप्रांत में हिन्दू महासभा को सशक्त राजनीतिक विकल्प के रूप में खड़ा किया था। {संदर्भ-महाराष्ट्र हिन्दू महासभा का इतिहास लेखक मामाराव दाते}

रही बात गांधी वध की ! नेहरू-पटेल-मोरारजी देसाई-कमिश्नर नागरवाला को वध के प्रयास की जानकारी पहले से ही थी।
गांधी ने पटना में कांग्रेस विसर्जन की मांग करके नेहरू का रोष ओढ़ लिया था। वधकर्ता भले ही गोडसे हिन्दू महासभाई थे खंडित भारत में नेहरू को अनशन से मनवानेवाला,प्रधानमंत्री पदपर आरूढ़ करनेवाले से कोई लाभ की स्थिती प्राप्त करने का प्रयोजन शेष नहीं बचा था। इसलिए जानकारी रहते हुए भी गांधी को बलि का बकरा बनाया गया। गांधी को मोतीलाल नेहरू के पिट्ठू सी आर दास ने हत्या-कारावास जैसे दबाव में नेहरू के तबेले में बांध दिया। यदि,हिन्दू महासभा संस्थापक सदस्य मालवीयजी का साथ छोड़कर गांधी ,नेहरू के गुलाम न बनते तो,

लाहोर से ढाका व्हाया देहली दस मिल चौड़े कॉरिडोर के प्रस्ताव पर न उनका वध होता न गोलवलकरजी की मदत के बिना १९४६ के चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिलता न नेहरू विभाजन करार पर हस्ताक्षर करके भारत का प्रधानमंत्री बन सकता था ?

कांग्रेस पर गुरु गोलवलकरजी के अनंत उपकार है। इसलिए,संघ को कुछ भी बोलने से पूर्व कांग्रेस को दस बार सोचना चाहिए ! गुलाम नबी आझाद की हिन्दू महासभा तीव्र शब्दों में निंदा करती है !

1949 अयोध्या आंदोलन में सफल हिन्दू महासभा का जनाधार न बढे इसलिए नेहरू-पटेल के इशारेपर गुरूजी ने बसंतराव ओक की सहायता से डॉ मुखर्जी को हिन्दू महासभा तोड़कर जनसंघ नहीं बनाया होता तो,कांग्रेस की क्या स्थिती बनती चुनाव में ? इसपर गंभीरता से सोचे ,कांग्रेस नेता संघ को कभी न कोसे ! गुरूजी के उपकार पर सत्ता संपादन कर वर्षो तक जनसंघ द्वारा  हिन्दू महासभा के वोट कटिंग का लाभ कांग्रेस ने उठाया है !