Sunday 28 December 2014

सावरकरजी पर द्विराष्ट्रवाद का आरोप करनेवाले बताएं कौन है विभाजनवादी !


अखंड भारत का हिन्दू , विविध जाती-पंथ समुदाय की महासभा बनाकर कार्यरत थी। सन १८६४ में उत्तर भारत गव्हर्नर ने ब्रिटिश पार्ल्यामेंट को प्रस्ताव दिया कि,"यदि इस देश पर दीर्घकाल शासन करना है तो, हिंदुओ का पल्ला छोड़कर मुसलमानों का दामन पकड़ना चाहिए।  सर सैय्यद अहमद खान की राजनितिक अलगाववादी मानसिकता में विभाजन के बिज ब्रिटिश साम्राज्यवाद के सहयोग से सन १८७० में बोये गए और उसे कांग्रेस ने सिंचा. और सन १८७७ में अमीर अली ने " राष्ट्रिय मोहम्मडन असोशिएशन " की राजनितिक संस्था बनायीं।

निवृत्त न्यायाधीश राय बहादुर चन्द्रनाथ मित्र ने बैसाखी सन १८८२ लाहोर में हिन्दू सभा की स्थापना की।
प्रारंभिक उद्देश्य :- धर्मांतरण के विरोध में शुध्दिकरण,अछूतोध्दार के साथ जातिभेद नष्ट करना था।
                       प्रथम सभापति प्रफुल्लचंद्र चट्टोपाध्याय और प्रथम महामंत्री बाबू नवीनचंद्र राय बने थे।
        सन १८५७ क्रांति के पश्चात हिन्दू राजनीती का आंदोलन न उभरे ; जो, ब्रिटिश सरकार के विरुध्द असंतोष उत्पन्न करें। इस भय से आशंकित सरकार ने विरोधी तत्वों को अवसर देने के बहाने अंग्रेजी पढ़े-लिखे युवकों को साथ लेकर राजनितिक वायुद्वार खोलने का मन बनाया।

          पूर्व सेनाधिकारी रहे एलन ऑक्टोव्हियन ह्यूम को,पाद्रीयों की सलाह पर सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट तथा वाइसराय लॉर्ड डफरिन ने परस्पर परामर्श से ऐसा संगठन खड़ा करने को कहा कि,वह ब्रिटिश साम्राज्य से ईमानदार रहने की शपथ लिए शिक्षित हो और इसमें २०% मुसलमान भी हो ! यह थी Congress स्थापना की पृष्ठभूमि।
        हिन्दू सभा के बढते प्रभाव के कारण २८ दिसंबर सन १८८५ मुंबई के गोकुलदास संस्कृत विद्यालय में धर्मांतरित व्योमेशचंद्र बैनर्जी को "राष्ट्रिय सभा" का राष्ट्रिय अध्यक्ष चुनकर कार्यारंभ हुआ। इसके प्रथम अधिवेशन से लेकर सन १९१७-१८ तक "God Save the King ...." से आरंभ और  "Three cheers for the king of England & Emperor of India " प्रार्थना से समापन होता रहा।
     
सन १९०७ में,गुरुश्री तेग बहादुरजी के साथ चांदनी चौक,दिल्ली में बलि चढनेवाले परिवार में पैदा हुए आर्य समाजी क्रांतिकारी नेता देवतास्वरुप भाई परमानन्दजी छिब्बर ने सिन्धु नदी के उस पार भविष्यत् द्वि राष्ट्रवादी / अलगाववादी मुसलमान समुदाय को एकसाथ बसाने की मांग की थी,उसे दुर्भाग्य से द्विराष्ट्रवाद समर्थक कही गयी.

        हिन्दू सभा अध्यक्ष सन १९१० सरदार गुरबक्श सिंग बेदीजी के प्रस्ताव और पंडित मदन मोहन मालवीय तथा पंजाब केसरी लाला लाजपत रायजी के प्रयास से १३ अप्रेल १९१५ हरिद्वार में कुंभ पर्व के बीच कासीम बाजार बंगाल नरेश मणीन्द्रचन्द्र नंदी की अध्यक्षता में अखिल भारत हिन्दू महासभा की स्थापना हुई तब पंडित मदन मोहन मालवीयजी के अनुयायी बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी उपस्थित थे।
      १९१६ लखनौ कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस-मुस्लिम लीग का संयुक्त प्रस्ताव पारित हुवा था. हिन्दू महासभा ने लखनौ में तत्काल निषेध बैठक बुलाई जीस में लो.तिलक भी उपस्थित थे, व्होइसराय को हिंदू महासभा की ओर से निषेध पत्र दिया गया.अगस्त १९२३ बनारस में अखिल भारत हिन्दू महासभा विशेष अधिवेशन में कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण की आलोचना की गयी.
 बढते वर्चस्व के लोकप्रिय नेता लो.तिलक को सत्ता स्पर्धा से हटाने मार्च १९२० में ब्रिटिश एजंट मोतीलाल गयासुद्दीन खान (नेहरू) ने सी.आर.दास द्वारा गांधी को तिलकजी की भांति कारावास या हत्या के भय से डरा धमकाकर अपने पक्ष में कर लिया. मोतीलाल नेहरू ने गाँधी को अलगाववादी खिलाफत का नेतृत्व सौपा और लो.तिलकजी को अपमानित कर चिरोल के विरुध्द इकठ्ठा किये एक करोड़ से अधिक रूपया लो.के स्वर्गस्थ होते ही तिलक स्वराज्य फंड के करोडो रुपये खिलाफत के अलगाववादियों में बांटे और स्वयं ने गांधी के नाम से डकारे. इस्लामी अलगाववाद को बल मिला.मोपला- कोहाट काण्ड हुवा. मुस्लिम लीग राजनितिक रूप से प्रबल हुई.इसमे राजनितिक एवं प्रशासकीय पदों का मोह था या इस्लामी षड्यंत्र यह पश्चात् पता हुवा.
        खिलाफत में मुस्लिम तुष्टिकरण में हुई गड़बड़ी के पश्चात् २५ मार्च १९२५ जिन्नाह ने अधिवेशन में १५ मांगो का प्रस्ताव रखा उनमे से १४ मांगो को कांग्रेस ने १९२७ में मान्यता दी तो,ब्रिटिश सरकार ने मुसलमानों को सुभो की संख्या बढा देने का लोलीपॉप दिखाया ; १९२८ में कांग्रेस ने उसे भी मान्यता दी तथा पृथक मतदाता सूचि और प्रतिनिधित्व का स्वीकार किया.ब्रिटिश सरकार से अधिक बढ़कर देने की कांग्रेस निति ने मुस्लिम अलगाववाद को प्रबल किया.

       १२ नवम्बर १९३० प्रथम गोलमेज में ५७ भारतीय प्रतिनिधि पहुंचे थे.उनमे हिन्दू महासभा के कार्यवाहक राष्ट्रिय अध्यक्ष डा.मुंजे,राजा नरेन्द्रनाथ, नानकचंद और डा.आम्बेडकर जी भी पहुंचे थे.बै.गाँधी ने आगा को पाकिस्तान के लिए कोरा धनादेश प्रस्तुत किया और जिन्नाह की १५ मांग मान्यता का वचन दिया.अल्लामा इकबाल की १९३० प्रयाग अधिवेशन की पृथकतावादी मांग जिसे गाँधी वहि लन्दन में मान लेते, अकाली नेता सरदार उज्जलसिंह ने विरोध कर पाकिस्तान को रोका.इस सम्मलेन की असफलता का समाधान धुंडने के बहाने ब्रिटिश सरकार ने १७ अगस्त १९३२ ' सांप्रदायिक निर्णय ' घोषित किया उसका भी विरोध हिन्दू महासभा ने किया. बहुसंख्यक हिन्दुओ को विघटित कर अल्प मत में लाकर मुसलमानों को राजनितिक सत्ता सौपने का षड्यंत्र था.श्वेतपत्र के अनुसार संसद की २५० बैठकों में हिन्दू जाती-पंथ को विघटित १०५ बैठके देने की योजना थी.मुस्लिम लीग की संतुष्टि पर कांग्रेस ने चुप्पी साध रखी थी. अखिल भारत हिन्दू महासभा संस्थापक सदस्य पं.मदन मोहन मालवीय जी ने गाँधी को येरवडा कारावास में मिलकर तथा पुणे में डा.आम्बेडकर जी से मिलकर विस्तृत चर्चा के साथ सांप्रदायिक निर्णय और श्वेतपत्र के विरोध में मन बना लिया.१३ मार्च १९३३ हिन्दू महासभा सांसद भाई परमानन्दजी ने संसद में सांप्रदायिक निर्णय और श्वेतपत्र के विरोध में प्रस्ताव रखा कांग्रेस प्रस्ताव का समर्थन करती तो विभाजन की पृष्ठभूमि नष्ट हो जाती. ब्रिटिश सरकार और मुस्लिम लीग ने संयुक्त रूप से इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया.इसलिए भाई जी लन्दन के संयुक्त संसदीय समिति में हिन्दू महासभा का विरोध प्रकट करने डा.मुंजे,मेहेरचंद खन्ना,एन.सी.चैटर्जी,बै.आर.एम्. देशमुख जी के साथ पहुंचे तो ब्रिटिश मु.लीग के समर्थको को स्वखर्च से लन्दन ले गए,कांग्रेस तटस्थ रही.२९ मार्च १९३३ भाई जी ने संयुक्त संसद-लन्दन में प्रखरता पूर्वक विचार रखे.१३-१६ अक्तूबर १९३३ अजयमेरु (अजमेर) में भाईजी ने इस निर्णय के विरोध में अधिवेशन किया.उसपर १ नव्हंबर को कांग्रेस ने जो स्पष्टीकरण दिया उनको कांग्रेस अपने व्यवहार में लागू नहीं कर पाई.
          केम्ब्रिज विद्यालय लन्दन में प्रा.चौधरी रहमत अली ने १९३३ में "मुस्लिम ब्रदर हुड" की अलगाववादी नहीं,अखंड पाकिस्तान वादी नीव रखी.जिसे जिन्नाह ने २६ मार्च १९४० लाहोर अधिवेशन में स्वीकार किया.उसकी योजना के अनुसार १० मुस्लिम राज्य बनाकर " दिनिया "बनाना था ब्रिटीश इंडिया को ! राजस्थान में मुईनिस्तान, दक्खन में उस्मानिस्तान,मोपिलास्तान आदि अन्य मुस्लिम राज्य की गुप्त योजनाए थी.संविधान सभा में मुस्लिम लीग के पुर्वश्रम के कांग्रेसी नेता चौ.खली कुज्जमा ने लाहोर जनसभा में कहा, " मुसलमानों के भाग्य में समस्त भारत का शासन करना लिखा है ! पाकिस्तान, मुसलमानों की अंतिम मांग नहीं है.किन्तु, वह तो समस्त इस्लामी जगत को एक महान राष्ट्र बनाने के लिए पहला कदम है."
       १९३५ चुनाव में कांग्रेस के विरोध में पं.मालवीय और माधव श्रीहरी अणे जी ने कोलकाता में NCP नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी का गठन कर हिन्दू महासभा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़कर कांग्रेस के समक्ष एक आवाहन खड़ा किया.भाई जी को चुनाव में हराने सरदार पटेल,भूलाभाई देसाई,दीवान चमनलाल गए थे. २ अगस्त १९३५ में संविधान बना,सांप्रदायिक निर्णय मुसलमानों के पक्ष में था.वहि,संघीय प्रणाली (फेडरेशन) अखंड भारत के हित में थी.उसे कार्यान्वित करने कांग्रेस का समर्थन पाने के लिये भाई जी वर्धा में गाँधी के पास गए और प्रस्ताव रखा, " फेडरेशन का स्वीकार करना राष्ट्रहित में होगा,शताब्दियों से भारत एकसंघ देश के रूप में खड़ा नहीं हो सका.अब अधिनियम की संघराज्य की प्रस्तावित योजना से ही अभिशापित देश को एकसंघ करने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है."  सरदार पटेल भी वहा थे उन्हों ने भी संमती जताई थी.संघराज्य का विरोध कर रही मुस्लिम लीग कांग्रेस की दृष्टी में राष्ट्रवादी थी.कांग्रेस ने सांप्रदायिक निर्णय के साथ प्रांतीय स्वायत्त शासन को भी स्वीकृति दे दी. संघराज्य को हटाने लीग ने १५-१८ अक्तूबर १९३७ लखनौ में अधिवेशन लिया.द्वितीय विश्व युध्द के कारन व्होइसराय ने फेडरेशन योजना स्थगित की.उसका लाभ मुस्लिम लीग को हुवा.

वीर सावरकर जी १० मई १९३७ को रत्नागिरी की स्थानबध्दता से अनिर्बंध मुक्त हुए और २७ दिसंबर १९३७ कर्णावती अखिल भारत हिन्दू महासभा राष्ट्रिय अधिवेशन में १९२२ लाहोर हिन्दू स्वयंसेवक संघ संस्थापक भाई श्री परमानन्द जी ने उन्हें राष्ट्रिय अध्यक्ष पद की माला पहनाई। अपने अध्यक्षीय भाषण में वीर जी ने कहा था कि ,"हम साहस के साथ वास्तविकता का सामना करे.भारत को आज एकात्म और एकरस राष्ट्र नहीं माना जा सकता,प्रत्युत यहाँ दो राष्ट्र है !" 
इस वाक्य को मा.सरसंघचालक श्री.सुदर्शन जी ने दुर्भाग्यपूर्ण कहकर ,'उसके कारण परोक्षरूप से जिन्ना के द्विराष्ट्र वाद का ही अनजाने में अनचाहे समर्थन हो गया.' संघ के वरिष्ठ विचारक श्री.हो.वे.शेषाद्री जी ने 'और देश बट गया' पुस्तक में,'सावरकर द्वारा भारत में दो राष्ट्र स्वीकार करना उचित नहीं ठहराया जा सकता !' ऐसा लिखा है।
परन्तु यह कहने के लिए इतिहास का पूर्वावलोकन आवश्यक है। दिनांक १५ से १८ अक्तूबर १९३७ मुस्लिम लीग द्वारा एक अधिवेशन लखनऊ में हुआ। पारित १९३५ संविधान के कम्युनल एवार्ड के अनुसार, "संघराज्य प्रणाली" अखंड भारत के पक्ष में होने के कारण उसका मुस्लिम लीग के अधिवेशन में हुए विरोध प्रस्तावों के अनुरूप, 
हिन्दू महासभा वरिष्ठ नेता भाई परमानंदजी ने वर्धा पहुंचकर बैरीस्टर गांधी को संघराज्य प्रणाली को समर्थन के लिये विचार रखा तब सरदार पटेल वहा उपस्थित थे ,दोनो ने इस प्रस्ताव का समर्थन दर्शाया भी परंतु,आगे जो हुआ उसके अनुरूप सावरकरजी ने २७ दिसंबर १९३७ को जो विचार रखा क्या वह द्विराष्ट्रवाद था ? या धोखे का संकेत ? जो संकेत दिए वह द्विराष्ट्रवाद के समर्थन में नहीं थे ! अपितु,मुस्लिम राष्ट्र के धोखे को भापकर उसे गहरा पैठा रोग बताया और उसकी चिंता करने के लिए आवाहन किया था.(सन्दर्भ-हिन्दू राष्ट्र एक विचार मंथन से )

सावरकर और हिन्दू महासभा के विरोध में लिखे गए इन विधानों के कारन :-
रा.स्व.संघ प्रवर्तक हिन्दू महासभा नेता धर्मवीर डॉ.बा.शि.मुंजे उनके मानस पुत्र डॉ.के.ब. हेडगेवार,क्रांतिकारी ग.दा.सावरकर ,परांजपे,बापू साहब सोनी जी ने 'हिन्दू युवक सभा' की नींव सन १९२५ विजया दशमी को रखी थी। उसका कार्यवहन डॉ.हेडगेवारजी को वाराणसी दंगा नियंत्रण के अनुभव पर वीर सावरकरजी को शिरगाव-रत्नागिरी में मिलकर आने के पश्चात् सौपा गया था। सावरकर-हेडगेवार दोनों महानुभावो के विचारो में साम्यता थी,'जब तक हिन्दू अन्धविश्वास,रूढ़ीवाद सोच,धार्मिक आडम्बर नहीं छोड़ेंगे और छुवाछुत अगड़ा-पिछड़ा और क्षेत्रवाद में बंटा रहेगा,वह संगठित नहीं होगा तब तक वह संसार में अपना उचित स्थान नहीं ले पायेगा।'यह दोनों का समान दृष्टिकोण था।

सन १९३८ वीर सावरकरजी दूसरी बार राष्ट्रिय अध्यक्ष बने नागपुर अखिल भारत हिन्दू महासभा अधिवेशन के संयोजक डॉ.हेडगेवारजी थे,वीर जी को सैनिकी मानवंदना दी गयी.विशाल शोभायात्रा में पूर्व सरसंघ चालक स्व.श्री.भाउराव देवरसजी केसरिया ध्वज के साथ हाथीपर बैठकर अगुवाई कर रहे थे। 

*** सन १९३९ कोलकाता अधिवेशन में वीर जी तीसरी बार अध्यक्ष बने डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी के संयोजन में यह अधिवेशन संपन्न हुवा। पूर्व न्या.श्री.निर्मलचन्द्र चटर्जी,गोरक्ष पीठ महंत श्री दिग्विजय नाथ जी,डॉ.हेडगेवार जी,गुरु गोलवलकर जी ,श्री.बाबा साहब घटाटे जी उपस्थित थे। अधिवेशन में अन्य पदोंके लिए चुनावी प्रक्रिया हुई,सचिव पद के लिए सर्व श्री इन्द्रप्रकाश-८० वोट,गोलवलकर-४० वोट,ज्योति शंकर दीक्षित-२ वोट मैदान में थे। इन्द्रप्रकाश चयनित हुए. डॉ.हेडगेवार राष्ट्रिय उपाध्यक्ष तो श्री.घटाटे कार्यकारिणी सदस्य चुने गए.श्री.गोलवलकर जी हार से सावरकर जी पर चिढ गए और समर्थको समेत हिन्दू महासभा से हट गए.डॉ.हेडगेवार जी ने उन्हें रा.स्व.संघ में सहकार्यवाह पद देकर सावरकर विरोध शांत किया परन्तु, सावरकर जी को द्रष्टा कहा जाता है उसका और एक प्रमाण,सावरकरजी ने त्वरित रा.स्व.संघ का हिन्दू महासभा में विलय और "हिन्दू मिलिशिया" की स्थापना का प्रस्ताव रखा उसे संघ प्रवर्तक धर्मवीर मुंजे जी ने भी मान्यता दी परन्तु गुरूजी के मोहजाल में फंसे बाबाराव सावरकर जी ने मना किया.अन्यथा विभाजन न होता और अखंड हिन्दुस्थान या हिन्दुराष्ट्र होता। 
 
      डॉ.हेडगेवारजी की अकस्मात् ? इस मृत्यु के पश्चात पिंगले को सरसंघ चालक बनना पूर्व निर्धारित था। मात्र कब्जाधारी गुरूजी ने सरसंघ चालक पद पाया। पदपर आते ही तत्काल उन्होंने सावरकर समर्थक सैनिकी शिक्षा शिक्षक श्री. मार्तण्डेय राव जोग को पदच्युत कर सैनिकी शिक्षा विभाग बंद किया. चातुर्वर्ण्य माननेवाले गुरूजी रुढ़िवादी परंपरा के समर्थक थे।सावरकर-हेडगेवार के भिन्न विचार-आचार थे। अपरिपक्वता के कारण सावरकर-गोलवलकर  में मतभेद थे। सावरकरजी का आदर जो हेडगेवारजी करते थे वह उनके आचरण में नहीं था। उलटे सावरकर विद्वेष में संघ-महासभा में दुरिया निर्माण की।जहा मुंजे-सावरकर जी सैनिकीकरण की आवश्यकता को प्रखरता पूर्वक रखते थे और हेडगेवार-सुभाष बाबु ने उनकी स्तुति की उसे गुरूजी ने जोग को हटाकर धुतकारा,वीरजी को "रिक्रूट वीर " तक उपाधि दी।

इस सन्दर्भ में श्री.गंगाधर इंदुलकर जी ने लिखा है ,' गोलवलकर यह सब वीर सावरकर जी की बढती लोकप्रियता के कारण कर रहे थे,उन्हें भय था की यदि सावरकर की लोकप्रियता बढ़ी तो युवक वर्ग उनकी ओर आकृष्ट नहीं होगा और संघ नेतृत्व विमुख होगा.' इस पर इंदुलकर ही पूछते है ,' ऐसा करके संघ/ गुरूजी क्या हिन्दुओको संगठित कर रहे थे या विघटित ? '

कांग्रेस नेता संघ और सावरकर जी को कलंकित करने में सफल नहीं हो पाए। परन्तु, गुरूजी के माध्यम से दूर करने में सफल हो पाई। १९४६ के चुनाव में गुरूजी ने नेहरू का खुलकर समर्थन देकर संघीय - हिन्दू महासभा प्रत्याशियोंको नामांकन वापस लेने को कहा। कांग्रेस-लीग बहुमत से  जित गयी हिन्दू महासभा को १६% वोट मिले और हिंदुओंकी ओर से विभाजन करार पर हस्ताक्षर का सौभाग्य नेहरू ने पाया। तब गुरूजी ने नेहरू के विश्वासघात पर मौन रखकर विभाजन का अप्रत्यक्ष समर्थन ही किया। अब बताये विभाजन या द्विराष्ट्रवाद का आरोप करनेवाले कौन है उत्तरदायी ?


 जिन्ना ने बलूचिस्तान के मुसलमानों को कहा था की,' भारतीय मुसलमान आप लोगो में बड़ा विश्वास और आशाए रखते है.' और समझाते है की,'आप इस्लाम के अजेय सैनिक है और आप के द्वारा इस्लाम भारत में अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त करने में समर्थ होगा.'।फरवरी १९४६ में निजाम ने राजनितिक दल "मीम" के नाम से बनाया और उसका नेतृत्व कासिम रिज़वी ने किया था।विभाजनोत्तर उसने खंडित भारत में हैदराबाद को समाविष्ट करने का विरोध किया।सर मिर्जा इस्माइल को नबाबी रियासत के प्रधान मंत्री पद से हटाकर मीर लाइक अली को नियुक्त किया। रजाकारो ने शेष भारत में समाविष्ट होने के इच्छुकोपर हमले कर उनकी हत्याए की।अंततः १३ से १७ सप्तम्बर १९४८ तक चली सैन्य कार्यवाही के पश्चात् हैदराबाद (भायानगर) शेष भारत में समविष्ट हुवा,कासिम रिज़वी को कारागार में डालकर मीम पर प्रतिबन्ध लगाया था। हाल ही में मीम को पुनर्जीवित करनेवाले, हिजबुल्लाह के कमान्डरो से मिलकर राष्ट्रद्रोही गतिविधि में संलिप्त सांसद-विधायक ओवैसी बंधु कांग्रेस के साथ सरकार में सहभागी रहे है।
  लाहोर से प्रकाशित मुस्लिम पत्र 'लिजट' में अलीगढ विद्यालय के प्रा.कमरुद्दीन खान का एक पत्र प्रकाशित हुवा था जिसका उल्लेख पुणे के ' मराठा ' और दिल्ली के ओर्गनायजर में २१ अगस्त १९४७ को छपा था, " हिन्दुस्थान बट जाने के पश्चात् भी शेष भारत पर भी मुसलमानों की गिध्द दृष्टी किस प्रकार लगी हुई है,लेख में छपा था चारो ओर से घिरा मुस्लिम राज्य इसलिए समय आनेपर हिन्दुस्थान को जीतना बहुत सरल होगा."
             कमरुद्दीन खा अपनी योजना को लेख में लिखते है, " इस बात से यह नग्न रूप में प्रकट है की ५ करोड़ मुसलमानों को जिन्हें पाकिस्तान बन जाने पर भी हिन्दुस्थान में रहने के लिए मजबूर किया है , उन्हें अपनी आझादी के लिए एक दूसरी लडाई लड़नी पड़ेगी और जब यह संघर्ष आरम्भ होगा ,तब यह स्पष्ट होगा की,हिन्दुस्थान के पूर्वी और पश्चिमी सीमा प्रान्त में पाकिस्तान की भौगोलिक और राजनितिक स्थिति हमारे लिए भारी हित की चीज होगी और इसमें जरा भी संदेह नहीं है की,इस उद्देश्य के लिए दुनिया भर के मुसलमानों से सहयोग प्राप्त किया जा सकता है. " उसके लिए चार उपाय है.
१)हिन्दुओ की वर्ण व्यवस्था की कमजोरी से फायदा उठाकर ५ करोड़ अछूतों को हजम करके मुसलमानों की जनसँख्या को हिन्दुस्थान में बढ़ाना.
२)हिन्दू के प्रान्तों की राजनितिक महत्त्व के स्थानों पर मुसलमान अपनी आबादी को केन्द्रीभूत करे.उदहारण के लिए संयुक्त प्रान्त के मुसलमान पश्चिम भाग में अधिक आकर उसे मुस्लिम बहुल क्षेत्र बना सकते है.बिहार के मुसलमान पुर्णिया में केन्द्रित होकर फिर पूर्वी पाकिस्तान में मिल जाये.
३)पाकिस्तान के निकटतम संपर्क बनाये रखना और उसी के निर्देशों के अनुसार कार्य करना.
४) अलीगढ विद्यालय जैसी मुस्लिम संस्थाए संसार भर के मुसलमानों के लिए मुस्लिम हितो का केंद्र बनाया जाये.

     १८ अक्तूबर १९४७ के दैनिक नवभारत में एक लेख छपा था, विभाजन के बाद भी पाकिस्तान सरकार और उसके एजंट भारत में प्रजातंत्र को दुर्बल बनाने तथा उसमे स्थान स्थान पर छोटे छोटे पाकिस्तान खड़े करने के लिए जो षड्यंत्र कर रहे है उसका उदहारण जूनागढ़,हैदराबाद और कश्मीर बनाये जा रहे है.

          'हिन्दुस्थान हेरोल्ड' के अनुसार निजाम सरकार दो करोड़ रूपया लगाकर वहा के अछूतों को मुसलमान बनाने के लिए एक विशाल आन्दोलन खड़ा कर रही है हिन्दुओ को डराकर राज्य से भगाया जा रहा है. ( इन स्थिति में डा.आम्बेडकरजी ने मक्रणपुर परिषद में निजाम को धमकाया और अछूतों के धर्मान्तरण को प्रतिबन्ध लगाया था.उनके अनुयायी इराप्पा ने निजाम का वध करने तक का प्रयास किया था परन्तु पकड़ा गया.)

       देश में राष्ट्रीयता में विषमता की राजनीती और मुस्लिम तुष्टिकरण के कारण संविधान विरोधी आरक्षण से अनचाहे अखंड पाकिस्तान की योजना को ही बल मिल रहा है,हिन्दू पंथिय मंदिरों का या टेक्स पेयर हिन्दुओ का धन मदरसों-मस्जिदों-चर्च को सहायता-अनुदान-वेतन में दिया जा रहा है.मंदिरो की सुरक्षा नहीं.पक्षांतर्गत अल्पसंख्यंक प्रकोष्ठ रखनेवाले कथित हिंदूवादी भी उन्हें राजनितिक लाभ के लिए लुभाने के प्रयास में कही कमी नहीं आने देते.अरबस्थान-रोम या विदेशी धन का धर्मांतरण के लिये आगमन हो या विदेशी बैंको में जमा राष्ट्रिय धन वापस लाने का साहस नहीं,रोकने का प्रतिबन्ध नहीं.संविधान विरोधी या राष्ट्रद्रोही को दण्डित करने की इच्छाशक्ति का अभाव अखंड पाकिस्तान को पुष्ट करता है.

            *श्री.शंकर शरणजी के दैनिक जागरण २३ फरवरी २००३ में प्रकाशित लेख के आधारपर एक पत्रक हिंदू महासभा के वरिष्ठ नेता स्वर्गीय श्री.जगदीश प्रसाद गुप्ता,खुर्शेद बाग,विष्णु नगर,लक्ष्मणपुरी (लखनौ) ने प्रकाशित किया था।
" सन १८९१ ब्रिटीश हिंदुस्थान जनगणना आयुक्त ओ.डोनेल नुसार ६२० वर्ष में हिंदू जनसंख्या विश्व से नष्ट होगी. १९०९ में कर्नल यु.एन.मुखर्जी ने १८८१ से १९०१, ३ जनगणना नुसार ४२० वर्ष में हिंदू नष्ट होंगे ऐसा भविष्य व्यक्त किया था।१९९३ में  एन.भंडारे,एल.फर्नांडीस,एम.जैन ने ३१६ वर्ष में खंडित हिंदुस्थान में हिंदू अल्पसंख्यक होंगे ऐसा भविष्य बताया गया है।१९९५ रफिक झकेरिया ने अपनी पुस्तक द वाईडेनिंग डीवाईड में ३६५ वर्ष में हिंदू अल्पसंख्यांक होंगे ऐसा कहा है। परंतु,कुछ मुस्लीम नेताओ के कथानानुसार १८ वर्ष में हिंदू (पूर्व अछूत-दलित-सिक्ख-जैन-बुध्द भी )अल्पसंख्यांक होंगे !

        मात्र जापान विश्व में एकमात्र ऐसा देश है जो, को नागरिकत्व नहीं करता और उसके विरुध्द संयुक्त राष्ट्र संघ में कोई विशेष न्यायासन भी नहीं है। इस्लाम के प्रचार-प्रसार पर यहाँ पूर्णतः प्रतिबंध है। मदरसा भी नहीं है। धर्मांतरण किया नहीं जा सकता। मुसलमान धर्मांधता एवं कट्टरता निर्माण करते है, ऐसा जपान सरकार का सैध्दांतिक आरोप है।इसलिए यहाँ मुसलमानों के संबंध में कठोरता पूर्वक सजगता रखी जाती है। इस ही के कारण
१) जापान में अभी तक किसी प्रकार के दंगे या आतंकी कृत्य हो नहीं पाया।
२) जापान में चार शतक पूर्व तक १० लक्ष मुसलमान थे,अब केवल पौने दो लक्ष बचे है।राष्ट्रिय परिवार नियोजन तथा एक विवाह नियम है।
३) जापान के मुसलमान केवल जापानी भाषा-लिपि का ही प्रयोग कर सकते है। जापानी भाषा में अनुवाद किया हुवा ही कुराण रख सकते है।
४) नमाज भी केवल जापानी में ही पढ़ सकते है।
५) जापान में केवल पांच मुस्लिम राष्ट्र के दूतावास है और उनके कर्मचारियों को भी जापानी भाषा में ही संवाद करना होता है।
६) जापान में धर्मांतरण प्रतिबंधित है।
७) ख्रिश्‍चन धर्मगुरू (पाद्री) भी यहाँ बेरोजगार है।गत ५० वर्ष में जापान निवासी ख्रिश्चानो की जनसँख्या में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई।
      जमात ए इस्लामी के संस्थापक मौलाना मौदूदी हिन्दू वर्ल्ड के पृष्ठ २४ पर स्पष्ट कहते है कि, " इस्लाम और राष्ट्रीयता कि भावना और उद्देश्य एक दुसरे के विपरीत है. जहा राष्ट्रप्रेम कि भावना जागृत होगी , वहा इस्लाम का विकास नहीं होगा.राष्ट्रीयता को नष्ट करना ही इस्लाम का उद्देश्य है."
                                                     
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       यु.एस.न्यूज एंड वल्ड रिपोर्ट या अमेरिकन साप्ताहिक के संपादक मोर्टीमर बी.झुकर्मेन ने २६/११ मुंबई हमले के पश्चात् जॉर्डन के अम्मान में मुस्लीम ब्रदरहूड संगठन के कट्टरवादी ७ नेताओ की बैठक सम्पन्न होने तथा पत्रकार परिषद का वृतांत प्रकाशित किया था।ब्रिटीश व अमेरिकन पत्रकारो ने उनकी भेट की और आनेवाले दिनों में उनकी क्या योजना है ? जानने का प्रयास किया था। 'उनका लक्ष केवल बॉम्ब विस्फोट तक सिमित नहीं है, उन्हें उस देश की सरकार गिराना , अस्थिरता-अराजकता पैदा करना प्रमुख लक्ष है।' झुकरमेन आगे लिखते है ,' अभी इस्त्रायल और फिलिस्तीनी युध्द्जन्य स्थिति है। कुछ वर्ष पूर्व मुस्लीम नेता फिलीस्तीन का समर्थन कर इस्त्रायल के विरुध्द आग उगलते थे।अब कहते है हमें केवल यहुदियोंसे लड़ना नहीं अपितु, दुनिया की वह सर्व भूमी स्पेन-हिन्दुस्थान समेत पुनः प्राप्त करनी है,जो कभी मुसलमानो के कब्जे में थी।' पत्रकारो ने पूछा कैसे ? ' धीरज रखिये हमारा निशाना चूंक न जाये ! हमें एकेक कदम आगे बढ़ाना है। हम उन सभी शक्तियोंसे लड़ने के लिए तयार है जो हमारे रस्ते में रोड़ा बने है !' ९/११ संदर्भ के प्रश्न को हसकर टाल दिया.परन्तु, 'बॉम्ब ब्लास्ट को सामान्य घटना कहते हुए इस्लामी बॉम्ब का  धमाका होगा तब दुनिया हमारी ताकद को पहचानेगी. ' कहा. झुकरमेन के अनुसार," २६/११ मुंबई हमले के पीछे ९/११ के ही सूत्रधार कार्यरत थे।चेहरे भले ही भिन्न होंगे परंतु, वह सभी उस शृंखला के एकेक मणी है।" मुस्लिम राष्ट्रो में चल रहे सत्ता परिवर्तन संघर्ष इस हि षड्यंत्र का अंग है.

        अमन का पैगाम देनेवाला इस्लाम ? हां,शिया पंथ ही सच्चा इस्लाम है बाकी सब अधर्मी !
आज पुरे विश्व को इस्लामी आतंक में झोकने वाले कट्टरपंथी वहाबी सुन्नी मुस्लिम कौन है ???
सऊदी अरब में नज्द नामक शहर इनका प्रमुख केन्द्र है। नज्द के "बानू तमीम जनजाति के अब्दुल वहाब नज्दी" ने ही "वहाबी पंथ" की बुनियादी डाली थी।
भारत में सर्वप्रथम १९२७ में हरियाणा के मेवात क्षेत्र में लोग वहाबी विचारधारा से जुड़े थे। इसके बाद "उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के देवबंद" में इसका मुख्यालय स्थापित किया गया, जिसके कारण भारत में "वहाबी विचारधारा के लोग देवबंदी" कहलाए। भारत में देवबंदियों या वहाबियों की जमात को "तब्लीगी" नाम से भी जाना जाता है। वहाबी कट्टरता और जिहाद में विश्वास करते हैं, इसलिए इनके मदरसों में भी इसी प्रकार की शिक्षा दी जाती है। वहाबियों की एक जमात जिहाद बिन नफ्स (अंतरात्मा से जिहाद) और दूसरी जमात जिहाद बिन सैफ (तलवार के बल पर जिहाद) में यकीन रखती है।
अब्दुल्ला इब्ने-उमर की हदीस के अनुसार नज्द के संबंध में इस्लाम के संस्थापक पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब ने कहा था कि शैतान के सींग यहीं से उगेंगे। एक हदीस में यह भी कहा गया है कि वहाबी शैतान की सलाह मानेंगे। कुरान शरीफ में बताया गया है कि इब्लीस (शैतान) ने अल्लाह के आदेश को मानने से इंकार करते हुए हजरत आदम को सज्दा नहीं किया था। उल्लेखनीय है कि वहाबी भी नबियों (पैगम्बरों) और सूफियों को नहीं मानते। उनके मुताबिक दरगाहों पर जाना, चादर और प्रसाद चढ़ाना इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ है, जबकि भारत में दरगाहों की बड़ी मान्यता है। मुसलमान ही नहीं अन्य मत-पंथों के लोग भी अपनी मन्नतें लेकर दरगाहों पर बड़ी संख्या में जाते हैं।
 यह कहना भी गलत न होगा कि आतंकवाद के लिए वहाबी विचारधारा ही जिम्मेदार है। जैश-ए-मोहम्मद, लश्करे- तोएबा, हरकत-उल-अंसार (मुजाहिद्दीन), अल बद्र, अल जिहाद, स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया (सिमी) और महिला आतंकवादी संगठन दुख्तराने-मिल्लत जैसे दुनिया के सौ से ज्यादा आतंकवादी संगठनों के सरगना वहाबी समुदाय के ही हैं। 

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