सन १८५७ क्रांति के पश्चात हिन्दू राजनीती का आंदोलन न उभरे ; जो, ब्रिटिश सरकार के विरुध्द असंतोष उत्पन्न करें। इस भय से आशंकित ब्रिटिश सरकार ने विरोधी तत्वों को अवसर देने के बहाने अंग्रेजी पढ़े-लिखे युवकों को साथ लेकर राजनितिक वायुद्वार खोलने का मन बनाया।
ब्रिटिश सरकार से वफादार ही कांग्रेस में नेता बन सकते थे !
पूर्व सेनाधिकारी रहे एलन ऑक्टोव्हियन ह्यूम को,पाद्रीयों की सलाह पर सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट तथा वाइसराय लॉर्ड डफरिन ने परस्पर परामर्श से ऐसा संगठन खड़ा करने को कहा कि,वह ब्रिटिश साम्राज्य से ईमानदार रहने की शपथ लिए शिक्षित हो और इसमें २०% मुसलमान भी हो ! यह थी कांग्रेस अर्थात राष्ट्रीय सभा स्थापना की पृष्ठभूमि। २८ दिसंबर सन १८८५ मुंबई के गोकुलदास संस्कृत विद्यालय में धर्मांतरित व्योमेशचंद्र बैनर्जी को राष्ट्रिय सभा का राष्ट्रिय अध्यक्ष चुनकर कार्यारंभ हुआ। इसके प्रथम अधिवेशन से लेकर सन १९१७-१८ तक "God Save the King ...." से आरंभ और "Three cheers for the king of England & Emperor of India " प्रार्थना से समापन होता रहा।
गरम दल के कांग्रेस नेता लोकमान्य तिलकजी को राजनीती से दूर रखने के लिए ब्रिटिश सरकार ने मोतीलाल नेहरु की सहायता से अनेक प्रयास किये। मोतीलाल के सहकारी सी आर दास ने अमृतसर अधिवेशन में तिलक जी के ब्रिटिश सरकार के अनुसार प्रस्ताव लाने के विरोध में गांधी के हस्तक्षेप पश्चात महामना पंडित मदनमोहन मालवीय के साथ रहकर कार्यरत बैरिस्टर मो क गांधी को मारने या बन्दीवास धमकियां देकर नेहरु के तबेले में बांधा और तिलकजी की प्रतिध्वंविता समाप्त की। मार्च १९२० तक हिन्दू विरोधी न रहे रौलेट ऐक्ट के विरोध में राष्ट्रिय आंदोलन करनेवाले गांधी एकदम ब्रिटिश एजेंट नेहरु परिवार के गुलाम बने।नेहरु हो या गांधी को बन्दीवास में जो आगाखान पैलेस या जैसे महलो में रहे तथा पत्राचार,ऐय्याशी की सुविधाए मिलती रही। घूमना-मिलना अनिर्बंध था।जहां गांधी ने नेहरु के इशारे को नकारा वहां गांधी अपनी सुविधा के अनुसार कारागार में भी रहे और कॉंग्रेसियो से मिलते भी रहे।
प्रसंगवश-१९२२ में असहयोग आन्दोलन को जारी रखने पर जो स्वतंत्रता मिलती, उसका पूरा श्रेय गाँधी को जाता। परंतु ,“चौरी-चौरा” में ‘हिंसा’ होते ही उन्होंने अपना ‘अहिंसात्मक’ आन्दोलन वापस ले लिया। जबकि, उस समय अँग्रेज घुटने टेकने ही वाले थे ! दरअसल गाँधीजी ‘सिद्धान्त’ व ‘व्यवहार’ में अन्तर नहीं रखनेवाले महापुरूष हैं। इसलिए उन्होंने यह फैसला लिया। जब कि एक दूसरा रास्ता भी था- कि, गाँधीजी ‘स्वयं अपने आप को’ इस आन्दोलन से अलग करते हुए इसकी कमान किसी और को सौंप देते। मगर यहाँ ‘अहिंसा का सिद्धान्त’ भारी पड़ जाता है- ‘देश की स्वतंत्रता’ पर।
बलिदानी त्रिमूर्ति भगत सिंग,सुखदेव,राजगुरु की मुक्तता के लिए जब हस्ताक्षर अभियान चलाया गया। गांधी ने हस्ताक्षर करने से मना इसलिए किया कि ,"ऐसा करने से ब्रिटिश सरकार विरोधी हिंसक कृती का समर्थन होगा !"
१९२७ चेन्नई मे सर्व दलीय बैठक मे पं.मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता मे जनता की तात्कालिक मांगो का समाधान निश्चित करने के लिये समिती बनाई गई।इस 'नेहरू रिपोर्ट' ने जो प्रस्ताव लाये वह ऐसे थे,'विधी विधान मंडल मे अल्पसंख्यको को चुनाव लडने आरक्षित-अनारक्षित स्थान,वायव्य सरहद प्रांत को गव्हर्नर शासित,सिंध से मुंबई अलग करना,४ स्वायत्त मुस्लीम बहुल राज्य का निर्माण,संस्थानिकोने प्रजा को अंतर्गत स्वायत्तता दिये बिना भविष्य मे संघराज्य संविधान मे प्रवेश निषिध्द।' इन मे परराष्ट्र विभाग-सामरिक कब्जा नही मांगा गया था।
मात्र नेताजी सुभाषजी ने इस बैठक में "संपूर्ण स्वाधीनता" की मांग रखकर गांधी की ब्रिटीश वसाहती राज्य की मांग का विरोध किया। इस नेहरू रिपोर्ट पर ३१ दिसंबर १९२८ आगा खान की अध्यक्षता मे दिल्ली मे मुस्लीम परिषद हुई।उसमे जिन्ना ने देश विभाजक १४ मांगे रखी। ३१ अक्तूबर १९२९ रेम्से मेक्डोनाल्ड की कुटनिति के अनुसार आयर्विन ने ब्रिटीश वसाहती राज्य का स्थान देने को मान्य किया।
विदित हो,सावरकरजी की प्रेरणा से भारत छोड़कर जापान हिन्दू महासभा नेता क्रांतीकारी रासबिहारी बोस से मिलने की और ब्रिटिश सेना पर बाहर से आक्रमण और सैनिकीकरण की योजना के साथ भरती राष्ट्रनिष्ठ सैनिकों के बल पर सुभाष बाबू के विद्रोह की योजना सावरकरजी ने बनाई थी।
स्टेफर्ड क्रिप्स ने महायुद्धोत्तर भारत को वसाहत राज्य देने की घोषणा की। तत्पश्चात जिन्ना ने संविधान निर्माण का विरोध करने की घोषणा की। सावरकर-मुंजे-मुखर्जी ने क्रिप्स की भेंट की और संविधान सभा मे सहयोग का विश्वास देकर विघटनवादी मानसिकता को रोकने की कुटनीतिक मांग की थी। २० फरवरी १९४७ 'स्वाधीन हिंदुस्थान अधिनियम १९४७' पारित हुवा और ३ जून को षड्यंत्रकारी नेहरू-बेटन-जिन्ना की योजना प्रकट हुई।७ जुलाई को वीर सावरकरजी ने राष्ट्र ध्वज समिती को टेलिग्राम भेजकर,'राष्ट्र का ध्वज भगवा ही हो अर्थात ध्वजपर केसरिया पट्टिका प्रमुखता से हो,कांग्रेस के ध्वज से चरखा निकालकर "धर्मचक्र" या प्रगती और सामर्थ्यदर्शक हो !' ऐसी मांग की।
भारत का प्रभावशाली राजनीतिक दल काँग्रेस पार्टी गाँधीजी की ‘अहिंसा’ के रास्ते स्वतंत्रता पाने का समर्थक था, उसने नेताजी सुभाष के समर्थन में जनता को लेकर कोई आन्दोलन शुरु नहीं किया। (ब्रिटिश सेना में बगावत की तो, खैर काँग्रेस पार्टी कल्पना ही नहीं कर सकती थी !) ऐसी कल्पना नेताजी-जैसे तेजस्वी नायक के बस की बात है। ...जबकि दुनिया जानती थी कि इन “भारतीय जवानों” की “राजभक्ति” के बल पर ही अँग्रेज न केवल भारत पर, बल्कि आधी दुनिया पर राज कर रहे हैं।
आझाद हिन्द सेना का ब्रिटिश सरकार से मुक्त भारत का आक्रमण और सत्ता लालची ब्रिटिश एजेंट नेहरु ने अमेरिकन राष्ट्रपती रुझवेल्ट को टेलीग्राम भेजकर "आपके मित्र राष्ट्र ब्रिटेन के अधीन राष्ट्र पर शत्रुराष्ट्र का आक्रमण हो रहा है !" कहकर सुभाष की सेना पर हवाई हमले करवाए। प्रसंगवश यह भी जान लिया जाय कि भारत के दूसरे प्रभावशाली राजनीतिक दल भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी ने ब्रिटिश सरकार का साथ देते हुए आजाद हिन्द फौज को जापान की 'कठपुतली सेना' (पपेट आर्मी) घोषित कर रखा था। नेताजी के लिए भी अशोभनीय शब्द तथा कार्टून का इस्तेमाल उन्होंने किया था।
कम्युनिस्ट आंदोलनों के जनक एम एन रॉय को कानपूर कांड में जुलाई १९३१ में बंदी बनाया गया था। ९ जनवरी १९३२ को उन्हें १२ वर्ष का कारावास सुनाया गया। मात्र,२० नवंबर १९३६ को मुक्त कर दिया गया था। यह कैसे संभव हुआ ?
१९४१ में कम्युनिस्ट पार्टी में दो फाड़ हुए। एक प्रतिबंधित और दूसरा गुट सीपीआई महामंत्री पी सी जोशी के नेतृत्व में कार्यरत था। बंदी नेताओ ने ब्रिटिश सरकार का साथ देना स्वीकार किया तब २४ जुलाई १९४२ को उनपर लगा प्रतिबंध हटा था।
यह वही गृहसचिव थे जो,वीर सावरकरजी की अंदमान मुक्ती पर कठोर हुए थे, रेजीनॉल्ड मैक्सवेल ! मैक्सवेल के साथ सी पी जोशी का पत्रव्यवहार भारत देश और देशभक्तों के साथ विश्वासघात था।
"An alliance existed between the Politbureau of fhe Communist Party & the Home Department of the Govt.of india by which Mr.P.C.Joshi was placing at the disposal of the Govt.of india,the services of his party members."
कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ कार्यकर्ता एस एस बाटलीवाल ने दिनांक २२ फरवरी १९४६ को पत्रकार परिषद में इस समझौते उल्लेख किया और कहा कि,"पी सी जोशी ने पार्टी कार्यकर्ताओं को देशभक्त आंदोलको के पीछे गुप्तचरी करने के लिए लगाया और CID को सूचना प्रेषित की। "
नेताजी सुभाषचंद्र बॉस आझाद हिन्द फ़ौज अन्य क्रांतिकारियों की गतिविधियों की जानकारी कांग्रेस नेता तथा सरकार को देना,उन्हें बंदी बनवाना कम्युनिस्टों का विशेष कार्य था।
(दैनिक बॉम्बे क्रॉनिकल दिनांक १७ मार्च १९४६ से स्ट्रगल फॉर फ्रीडम के लेखक आर सी मुजुमदार ने उद्घृत किया है। )
सेना के भारतीय जवानों की इस दुविधा ने आत्मग्लानि का रुप लिया, फिर अपराधबोध का और फिर यह सब कुछ बगावत के लावे के रुप में फूटकर बाहर आने लगा।
फरवरी १९४६ में, जबकि लालकिले में मुकदमा चल ही रहा था, रॉयल इण्डियन नेवी की एक हड़ताल बगावत में रुपान्तरित हो जाती है।* कराची से मुम्बई तक और विशाखापट्टणम् से कोलकाता तक जलजहाजों को आग के हवाले कर दिया जाता है। देश भर में भारतीय जवान ब्रिटिश अधिकारियों के आदेशों को मानने से मना कर देते हैं। मद्रास (चेन्नई) और पुणे में तो खुली बगावत होती है। इसके बाद जबलपुर में बगावत होती है, जिसे सरदार पटेल-आसफ अली समजौते के साथ दो हफ्तों में दबाया जा सका। 45 का कोर्ट-मार्शल करना पड़ता है।
ब्रिटिश नाविक दल आन्दोलन एवं बगावत १९४४ में नहीं हुआ, वह डेढ़-दो साल बाद होता है और लन्दन में राजमुकुट यह महसूस करता है कि भारतीय सैनिकों की जिस “राजभक्ति” के बल पर वे आधी दुनिया पर राज कर रहे हैं, उस “राजभक्ति” का क्षरण शुरू हो गया है... और अब भारत से अँग्रेजों के निकल आने में ही भलाई है।
अन्यथा जिस प्रकार शाही भारतीय नौसेना के सैनिकों ने बन्दरगाहों पर खड़े जहाजों में आग लगाई है, उससे तो अँग्रेजों का भारत से सकुशल निकल पाना ही एक दिन असम्भव हो जायेगा... और भारत में रह रहे सारे अँग्रेज एक दिन मौत के घाट उतार दिये जायेंगे।यह भय नेहरु-गांधी के कारन नहीं उपजा था !
सबसे पहले, माईकल एडवर्ड के शब्दों में ब्रिटिश राज के अन्तिम दिनों का आकलन:
“ भारत सरकार ने आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चलाकर भारतीय सेना के मनोबल को मजबूत बनाने की आशा की थी। इसने उल्टे अशांति पैदा कर दी- जवानों के मन में कुछ-कुछ शर्मिन्दगी पैदा होने लगी कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार का साथ दिया। अगर बोस और उनके आदमी सही थे- जैसाकि सारे देश ने माना कि वे सही थे भी- तो ब्रिटिश भारतीय सेना के भारतीय जरूर गलत थे। भारत सरकार को धीरे-धीरे यह दीखने लगा कि ब्रिटिश राज की रीढ़- भारतीय सेना- अब भरोसे के लायक नहीं रही। सुभाष बोस का भूत, हैमलेट के पिता की तरह, लालकिले (जहाँ आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चला) के कंगूरों पर चलने-फिरने लगा, और उनकी अचानक विराट बन गयी छवि ने उन बैठकों को बुरी तरह भयाक्रान्त कर दिया, जिनसे स्वतंत्रता का रास्ता प्रशस्त होना था।”
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अब देखें कि ब्रिटिश संसद में जब विपक्षी सदस्य प्रश्न पूछते हैं कि ब्रिटेन भारत को क्यों छोड़ रहा है, तब प्रधानमंत्री एटली क्या जवाब देते हैं। प्रधानमंत्री एटली का जवाब दो बिंदुओं में आता है कि, आखिर क्यों ब्रिटेन भारत को छोड़ रहा है-
१ . भारतीय मर्सिनरी (पैसों के बदले काम करने वाली- पेशेवर) सेना ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति वफादार नहीं रही, और
२ . इंग्लैण्ड इस स्थिति में नहीं है कि वह अपनी (खुद की) सेना को इतने बड़े पैमाने पर संगठित एवं सुसज्जित कर सके कि वह भारत पर नियंत्रण रख सके।
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यही लॉर्ड एटली १९५६ में जब भारत यात्रा पर आते हैं, तब वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल निवास में दो दिनों के लिए ठहरते हैं। कोलकाता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश चीफ जस्टिस पी.बी. चक्रवर्ती कार्यवाहक राज्यपाल हैं। वे लिखते हैं: “... उनसे मेरी उन वास्तविक बिंदुओं पर लम्बी बातचीत होती है, जिनके चलते अँग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा। मेरा उनसे सीधा प्रश्न था कि गाँधीजी का "भारत छोड़ो” आन्दोलन कुछ समय पहले ही दबा दिया गया था और १९४७ में ऐसी कोई मजबूर करने वाली स्थिति पैदा नहीं हुई थी, जो अँग्रेजों को जल्दीबाजी में भारत छोड़ने को विवश करे, फिर उन्हें क्यों (भारत) छोड़ना पड़ा? उत्तर में एटली कई कारण गिनाते हैं, जिनमें प्रमुख है नेताजी की सैन्य गतिविधियों के परिणामस्वरुप भारतीय थलसेना एवं जलसेना के सैनिकों में आया ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में क्षरण। वार्तालाप के अन्त में मैंने एटली से पूछा कि अँग्रेजों के भारत छोड़ने के निर्णय के पीछे गाँधीजी का कहाँ तक प्रभाव रहा? यह प्रश्न सुनकर एटली के होंठ हिकारत भरी मुस्कान से संकुचित हो गये जब वे धीरे से इन शब्दों को चबाते हुए बोले, “न्यू-न-त-म!” ”
(श्री चक्रवर्ती ने इस बातचीत का जिक्र उस पत्र में किया है, जो उन्होंने आर.सी. मजूमदार की पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ बेंगाल’ के प्रकाशक को लिखा था।)
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निष्कर्ष के रुप में यह कहा जा सकता है कि:-
१ . अँग्रेजों के भारत छोड़ने के हालाँकि कई कारण थे, मगर प्रमुख कारण यह था कि भारतीय थलसेना एवं जलसेना के सैनिकों के मन में ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में कमी आ गयी थी और- बिना राजभक्त भारतीय सैनिकों के- सिर्फ अँग्रेज सैनिकों के बल पर सारे भारत को नियंत्रित करना ब्रिटेन के लिए सम्भव नहीं था।
२ . सैनिकों के मन में राजभक्ति में जो कमी आयी थी, उसके कारण थे- नेताजी का सैन्य अभियान, लालकिले में चला आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा और इन सैनिकों के प्रति भारतीय जनता की सहानुभूति।
३ . अँग्रेजों के भारत छोड़कर जाने के पीछे गाँधीजी या काँग्रेस की अहिंसात्मक नीतियों का योगदान नहीं के बराबर रहा।
गांधीवादी गोलवलकर के अनुसार रिक्रूट वीर, स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी के प्रति अति आदरयुक्त भावना के कारण हिन्दू महासभा के कार्यकर्ता सावरकर भक्त इस सत्य का स्वीकार नहीं कर सकते की उन्होंने अंडमान से प्रार्थनापत्र भेजा था। परन्तु,रत्नागिरी स्थानबध्दता में उनके साथ रहे नारायण सदाशिव बापट जी ने लिखी पुस्तक 'स्मृति पुष्पे' में लिखा है कि , " अंदमान से मुक्ति के लिए सावरकर जी ने किये पत्राचार की जानकारी Echoes from the Andmans इस अपने कनिष्ठ बंधू को भेजे पत्र संकलन में मिलती है।
उसमे साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार को, "वसाहती स्वराज्य से समाधान" और "सनदशीर (व्यावहारिक) मार्ग का अवलम्ब" आदि आश्वासन के अतिरिक्त कुछ नहीं है। और वह भी एक मुक्तता के लिए क्रांतिकारी दांव था जो उनके आदर्श छत्रपति शिवाजी महाराज जी ने आगरा से मुक्तता के लिए प्रयोग किया था। सावरकरजी ने अपनी मुक्तता के लिए अंडमान से जो पत्राचार किया वह किसी प्रकार से समझौता नहीं था। भारत माता की मुक्तता के लिए क्रांतीकारी अपने आप को बंधनमुक्त होने का मार्ग नहीं चुनेगा ? अर्धमुक्त होकर उन्होंने ब्रिटिश प्रतिबन्ध के रहते हुए भी रत्नागिरी में जो कार्य गुप्तचरोंकी आँख में धुल झोंककर किया वह सम्पूर्ण मुक्ति की राह देखते नहीं बैठे थे ! उससे स्पष्ट होता है। सावरकरजी ने यह भी स्पष्ट किया था की, 'मेरे जैसा प्रसिध्द व्यक्ति यदि जिलाबंदी तोड़कर कार्य करने निकल पडूंगा तो भी गुप्त नहीं रहेगा."
लाहोर से प्राप्त ट्रिब्यून में वार्ता छपी थी.'पंजाब के गव्हर्नर हाॅटसन को भरी दोपहरी में फर्ग्युसन कोलेज-पुणे के ग्रंथागार में हिन्दू महासभाई क्रांतिकारी जो आगे कांग्रेस ने अपहृत कर तिलक स्मारक मंदिर-पुणे के शिलान्यास में निमंत्रित किया वह क्रांतीकारी वासुदेव बलवंत गोगटेजी ने निकट से गोली चलाकर मार डाला.' सावरकरजी ने अपने निकटवर्ती बापट को इस क्रांतिकृत्य पूर्व "वा ब गोगटे मुझसे मिलकर आशीर्वाद लेकर गए थे !" उस समय का वार्तालाप कहा था। अर्थात अर्धबंदी स्थिति में सावरकरजी ने समाजसुधार की आड़ में राजनीती एवं क्रान्तिकार्य भी किया यह स्पष्ट होता है।
सावरकरजी की उपेक्षा में कांग्रेस के साथ गांधीवादी गोलवलकर ने साथ दिया है और कांग्रेस द्वारा सावरकरजी को गद्दार कहने में गोलवलकर विचारक परदे के पीछे कांग्रेस के साथ है।
स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी को गणमान्योने दी श्रध्दांजलि शब्दों को देखे !
१]महामहिम राष्ट्रपति डॉक्टर राधाकृष्णन:-'सावरकर एक पुरानी पीढ़ी के महान क्रांतिकारक थे,उन्होंने परतंत्र की शासन व्यवस्था से मुक्ति के लिए विस्मयजनक मार्गोंका अवलंब किया.राष्ट्र स्वतंत्रता के लिए उन्होंने अनंत यातनाये झेली थी.उनका जीवन चरित्र नयी पीढ़ी के लिए आदर्श स्वरुप है|
२]कांग्रेस महामंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी:-सावरकर जी के निधन से हम लोगों में से महापुरुष को छीन लिया है,यतार्थ में,सावरकर साहस और राष्ट्रभक्ति का ही दूसरा प्रतिशब्द है.सावरकर सर्वश्रेष्ठ क्रांतिकारी थे.उनसे अनेकोने प्रेरणा ली थी|
३]गुरुवर्य रेंगलर परांजपे:-'सावरकर मेरे छात्र थे;याद है की,'एक प्रसंग में मैंने उनको दण्डित किया था,उनके और मेरे सम्बन्ध नजदीकी के थे.हाल ही में मेरी ९० वर्ष की जन्म तिथि पर स्मरण पूर्वक रुग्णशैय्या से शुभेच्छा भेजी थी.वह महान देशभक्त थे.उनका नाम अनंत काल तक संस्मर्निय रहेगा|'
४]दलित संघ अध्यक्ष एवं सांसद नारायणराव काजरोलकर:-'
स्वा.वीर सावरकर एक महान क्रांतिकारक तो थे ही लेकिन हरिजनों के महान दैवत थे.अछूतोध्दार के लिए उन्होंने किये प्रयास अद्वितीय थे|'
५]श्री.बलराज जी मधोक:-जिनको स्वतंत्र भारत का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनना चाहिए था वे स्वतंत्र भारत में बंदी बन गए|
६]स्व.बालासाहेब देवरस जी (१९३८ हिन्दू महासभाई ):-
हुए बहुत,होंगे बहुत परन्तु इनके समान वही,इस उक्ति को यतार्थ से सिध्द करनेवाले नर शार्दुल अर्थात वीर सावरकर
७]गोरक्ष पीठ महंत श्री दिग्विजयनाथ जी महाराज:-
वीर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू राष्ट्रवाद ही वह संजीवन बूटी है,जो हमारे देश को साम्प्रदायिकता प्रांतीयता व् जातीय संकीर्णता से बचा सकती है
८]पंडिता राकेशारानी आर्य:- धार्मिक राजनितिक क्रांति के जनक महर्षि दयानंद, क्रांतिवीर वासुदेव बलवंत फडके और समष्टिवाद के दर्शनकार कार्ल मार्क्स की दिव्य ज्योति इनका संगम थे वीर सावरकर !
सावरकरजी सामान्य क्षमावीर या रिक्रूटवीर होते तो,विरोधी ऐसी श्रध्दांजलि देते ? प्रश्न अपने आप से पुछिए !
सावरकरजी एक हिन्दुत्ववादी पार्टी हिन्दू महासभा के १९३७ से १९४२ राष्ट्रिय अध्यक्ष रहे है। वह यहाँ उनके क्रांति कार्य,समाज सुधारकार्य तथा हिन्दू संगठन रास्वसंघ की स्थापना में डॉक्टर हेडगेवारजी के मार्गदर्शक रहे होने का राजनितिक सन्मान है। वह दूरद्रष्टा थे !
सावरकरजी का सन्मान कांग्रेस-वामपंथी भी करते थे। यह प्रमाण !
सावरकरजी के साथ अभिनव भारत में सक्रीय रहे तथा सावरकरजी को अंडमान से मुक्त करने के प्रयास में रहे राजा महेंद्र प्रताप ने १९५७ में सांसद रहते संसद में प्रस्ताव रखकर तीन नेताओ को ,"स्वतंत्रता सेनानी" का सन्मान दिलवाया। उनमे स्वातंत्र्यवीर सावरकर एक थे। हर माह पांचसौ रूपया मानधन मेहरु के मंत्री मंडल ने पारित किया था।
कपूर आयोग के अहवाल के आने के पश्चात भी ,१९७० सावरकरजी को गणमान्य माननेवाली नेत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने जनसंघ और वामपंथियो के सहयोग से सावरकरजी के गौरव पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने एक डाक टिकट जारी किया।कांग्रेस या वामपंथी दलों ने किसी प्रकार की आपत्ती नहीं की। केंद्रीय मंत्री सत्यनारायण सिंह द्वारा प्रकाशित पत्र का मायने देखे ........
सावरकरजी को उद्देशकर लिखा है ,"His Life is History of Resistance ,Strife ,Struggle ,Suffering & Sacrifice for the cause of Political ,Social & Economic emancipation of India " सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार दिनांक १९-०५-१९७० {नैशनल अर्काइव्ह ऑफ़ इंडिया-देहली }
१९८३ को वीर सावरकरजी की जन्म शताब्दी के उपलक्ष में एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म भारतीय भाषाओ में बनाने को केंद्रीय मंत्री मंडल ने स्वीकारोक्ति दी। श्री प्रेम वैद्य ने इसकी निर्मिती की। इसे केंद्र सरकार ने पारितोषिक देकर सन्मानित किया।
पूर्व हिन्दू महासभाई स्व भाऊराव देवरसजी,पूर्व मुख्यमंत्री महाराष्ट्र सुशीलकुमार शिंदे ने नागपुर में सावरकर जन्मशताब्दी समारोह में स्मरणिका प्रकाशन में स्व विक्रमराव नारायण सावरकर के साथ सहभाग किया।
१९८९ राष्ट्रिय सावरकर स्मारक,दादर,मुंबई के उद्घाटक राष्ट्रपती स्व शंकर दयाल शर्मा,महाराष्ट्र के राज्यपाल स्व के ब्रह्मानंद,मुख्यमंत्री श्री शरद पवार उपस्थित थे।
१९९२ सावरकर स्मारक द्वारा पकाशित स्मरणिका में ,प्रधानमंत्री नरसिंघ राव,शरद पवार,लालू प्रसाद यादव,सुधाकर राव नाईक के सावरकर गौरव प्रद लेख प्रकाशित हुए।
१९९५ सावरकरजी को,"भारतरत्न" पुरस्कार की हिन्दू महासभा की मांग पर राष्ट्रपती शंकर दयाल शर्मा जी ने ऐसे पुरस्कार वितरण की धांधली रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश से प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में समिती बनवाने का प्रमोद पंडित जोशी ने सघन प्रयास किया। मात्र कांग्रेस-भाजप की राजनीती हमेशा आड़े आती रही।वाजपेयी को भारतरत्न प्रदान करने में विरोध न हो इसलिए मोदी सरकार ने अखिल भारत हिन्दू महासभा संस्थापक महामना पंडित मदनमोहन मालवीयजी को भारतरत्न देकर सन्मानित तो किया मात्र सावरकरजी की उपेक्षा वाजपेयी के समय से लेकर होती रही।
सावरकरजी को ,"भारतरत्न" प्रदान करने के विरोधी कांग्रेस और भाजप की यह संयुक्त योजना है और सावरकर गद्दार ?
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