Saturday, 11 August 2012

अध्यात्म से क्रांति की प्रेरणा

                    अध्यात्म से क्रांति की प्रेरणा देते हमारे योध्दा संन्यासी 
     धार्मिक श्रध्दा के क्षय में विज्ञानं का जैसे योगदान है वैसे ही धर्म की अज्ञानता भी एक कारन है.
     श्री रामानुजाचार्यजी ने सम्पूर्ण शरणागति से भक्ति को प्रार्थमिकता दी है.कर्मानुष्ठान को भक्ति का सहाय्यक माना है.
     श्री मध्वाचार्यजी ने "अमला" निर्दोष भक्ति को प्रार्थमिकता देते हुए निष्काम-अहेतुक अनन्यभक्ति की प्रेरणा  दी है.
      श्री वल्लभाचार्यजी ने "मर्यादा" व "पुष्टि" ऐसे भेद कर "निष्काम" व "अनन्य" ऐसी पुष्टि भक्ति को महत्त्व दिया है.इश्वर को परम मूल्य बनाना भक्ति की दृष्टी से महत्त्वपूर्ण माना है.
      श्री चैतन्यप्रभु जी ने भक्ति को पांचवा पुरुषार्थ कहकर भक्ति से प्राप्त होनेवाले परमानन्द को मोक्ष से अधिक श्रेष्ठ माना है.                    
       नाथ संप्रदायने विरक्ति-योग साधना को महत्त्वपूर्ण अंग माना है,श्री दत्त संप्रदाय में सद्गुरु भक्ति श्रेष्ठ मानी गयी है.श्री रामानन्दीय संप्रदाय के समर्थ श्री रामदासजी ने श्रीराम भक्ति के साथ सामाजिक कर्तव्यो को श्रीमत दासबोध में अलंकृत किया है.
       स्वधर्माचरण,इश्वरनिष्ठां,सदाचार के लिए सभी संतो ने प्रेरित किया है.श्रीमद भागवत नुसार श्रवण,कीर्तन, विष्णु स्मरण,पादसेवन,अर्चन,वंदन,दास्य,सख्य,आत्मनिवेदन इन नवविधा भक्ति का स्वीकार किया है. भक्ति का अर्थ पलायनवाद-निवृत्तिवाद नहीं.यह एक इश्वरनिष्ठ जीवनदृष्टी है.जिसके द्वारा आत्मिक कल्याण के साथ विश्वकल्याण भी निहित है.धर्म को अभिप्रेत आचार्योंके विचार इश्वर चिंतन का समान अभिप्राय रखते है. एकात्मता का समान दृष्टिकोण रखते है.1893 शिकागो धर्म परिषद में स्वामी विवेकानंदजी ने हिंदुत्व को विश्वधर्म की प्रेरणा देनेवाला बताया था.
       साधू संतों के आचरण से इन्द्रिय,प्राण,मन,क्रिया को संतुलन प्राप्त होता है.उनको सहज संयम-वैराग्य प्राप्त होता है.इनको कर्तुत्व का अहंकार नहीं होता.यश-अपयश के प्रति निर्विकार परन्तु कर्तव्य पालन दक्ष होते है. कही भी काम क्रोध लोभ द्वेष मत्सर नहीं होता.विश्वनियंता की दिव्य सत्ता के प्रति सेवा भक्ति का कर्मयोग होता है.
      अज्ञान और दुक्ख ग्रस्त मानव के कल्याण के लिए सामर्थ्य और प्रतिष्ठा प्रदान करने का कार्य संतो ने किया है.प्रसंगवश आत्म बलिदान भी दिया है.धर्मराज हर्षवर्धन ने सन 799 में कनौज में युध्द विरोंकी सर्व खाप पंचायत बनायीं थी. 1365 में वह सौरभ मुजफ्फरनगर में स्थानांतरित हुई थी.उसके दस्तावेजो के अनुसार "1857 की स्वाधीनता संग्राम के संयोजक और प्रेरक चार प्रमुख योगी-संन्यासी थे.स्वामी ओमानंद आयु 160,हिमालय से ; स्वामी पूर्णानंद आयु 129,हरिद्वार ; अंध स्वामी विरजानंद आयु 79 मथुरा ; स्वामी दयानंद आयु 33 उत्तर पश्चिमी भारत " तात्पर्य यह है की, अध्यात्म का ज्ञान देनेवाले संतो ने समय पर क्रांति की प्रेरणा दी है.देश में अधर्म बढ़ रहा है उसके समापन के लिए संत प्रेरक बने.

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