23 October 2012 at 18:13
* रा.स्व.संघ प्रवर्तक हिन्दू महासभा नेता धर्मवीर डॉ.बा.शि.मुंजे जी के मानस पुत्र डॉ.के.ब. हेडगेवार ,१९२२ लाहोर हिन्दू स्वयं सेवक संघ संस्थापक क्रांतिकारी भाई परमानन्द छिब्बर,संत पांचलेगावकर महाराज ( गढ़ मुक्तेश्वर दल संचालक) क्रांतिकारी ग.दा.सावरकर ( तरुण हिन्दू सभा ),परांजपे,बापू साहब सोनी जी ने 'हिन्दू युवक सभा' की नींव सन १९२५ विजया दशमी को रखी थी.उसका कार्यवहन डॉ.हेडगेवारजी को वाराणसी दंगा नियंत्रण के अनुभव पर वीर सावरकरजी को शिरगाव-रत्नागिरी में मिलकर आने के पश्चात् सौपा गया था. इन दोनों महानुभावो के विचारो में साम्यता थी,'जब तक हिन्दू अन्धविश्वास,रूढ़ीवादी सोच,धार्मिक आडम्बर नहीं छोड़ेंगे और छुवाछुत अगड़ा-पिछड़ा और क्षेत्रवाद में बंटा रहेगा,वह संगठित नहीं होगा तब तक वह संसार में अपना उचित स्थान नहीं ले पायेगा !' वीर जी की प्रेरणा से बना पतित पवन मंदिर-रत्नागिरी उसका साक्षात् उदाहरण है.
* वीर सावरकर जी १९३७ अनिर्बंध मुक्त हुए और २७ दिसंबर कर्णावती अखिल भारत हिन्दू महासभा राष्ट्रिय अधिवेशन में भाई श्री परमानन्द जी ने उन्हें राष्ट्रिय अध्यक्ष पद की माला पहनाई.अपने अध्यक्षीय भाषण में वीर जी ने कहा था,"हम साहस के साथ वास्तविकता का सामना करे.भारत को आज एकात्म और एकरस राष्ट्र नहीं माना जा सकता,प्रत्युत यहाँ दो राष्ट्र है !" इस वाक्य को मा.सरसंघचालक सुदर्शन जी ने दुर्भाग्यपूर्ण कहकर ,'उसके कारणपरोक्ष रूप से जिन्ना के द्विराष्ट्र वाद का ही अनजाने में अनचाहे समर्थन हो गया !' श्री.हो.वे.शेषाद्री जी ने 'और देश बट गया' पुस्तक में,'सावरकर द्वारा भारत में दो राष्ट्र स्वीकार करना उचित नहीं ठहराया जा सकता.' परन्तु वीर सावरकर जी ने १८अक्टूबर १९३७ मुस्लिम लीग के लखनऊ अधिवेशन में पारित प्रस्तावों के अनुरूप जो, संकेत दिए वह द्विराष्ट्रवाद के समर्थन में नहीं थे अपितु,मुस्लिम राष्ट्र के धोखे को भापकर उसे गहरा पैठा रोग बताया और उसकी चिंता करने के लिए आवाहन किया था.
* सन १९३८ वीर जी दूसरी बार राष्ट्रिय अध्यक्ष बने नागपुर अखिल भारत हिन्दू महासभा अधिवेशन के संयोजक डॉ.हेडगेवार जी थे,वीर सावरकर जी को सैनिकी मानवंदना दी गयी.विशाल शोभायात्रा में पूर्व सरसंघ चालक स्व.श्री.भाउराव देवरसजी केसरिया ध्वज के साथ हाथीपर बैठकर अगुवाई कर रहे थे.
* सन १९३९ कोलकाता अधिवेशन में वीर जी तीसरी बार अध्यक्ष बने डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी के संयोजन में यह अधिवेशन संपन्न हुवा. पूर्व न्या.श्री.निर्मलचन्द्र चटर्जी,गोरक्ष पीठ महंत श्री दिग्विजय नाथ जी,डॉ.हेडगेवार जी,गुरु गोलवलकर जी ,श्री.बाबा साहब घटाटे जी उपस्थित थे.इस अधिवेशन में अन्य पदोंके लिए चुनावी प्रक्रिया हुई,सचिव पद के लिए सर्व श्री इन्द्रप्रकाश-८० वोट,गोलवलकर-४० वोट,ज्योति शंकर दीक्षित-२ वोट मैदान में थे, इन्द्रप्रकाश चयनित हुए. डॉ.हेडगेवार राष्ट्रिय उपाध्यक्ष तो श्री.घटाटे राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य चुने गए.श्री.गोलवलकर जी हार से सावरकर जी पर चिढ गए और समर्थको समेत हिन्दू महासभा से हट गए.डॉ.हेडगेवारजी ने उन्हें मनाया और रा.स्व.संघ में पद देकर सावरकर विरोध शांत किया. परन्तु,वीर सावरकरजी को द्रष्टा कहा जाता है उसका और एक प्रमाण,सावरकरजी ने त्वरित रा.स्व.संघ का हिन्दू महासभा में विलय और हिन्दू मिलिशिया की स्थापना का प्रस्ताव रखा उसे संघ प्रवर्तक धर्मवीर मुंजे जी ने भी मान्यता दी परन्तु गुरूजी के सम्मोहन में फंसे बाबाराव सावरकरजी ने मना किया,अन्यथा अखंड भारत विभाजन न होता.
डॉ.हेडगेवार जी की अकस्मात् मृत्यु ? के बाद मोरोपंत पिंगले जी को सर संघचालक बनना था परन्तु,गुरूजी ने सरसंघ चालक पद कब्ज़ा किया। तत्काल उन्होंने सावरकर समर्थक सैनिकी शिक्षा शिक्षक श्री.मार्तंडेय राव जोग को पदच्युत कर सैनिकी शिक्षा विभाग बंद किया. चातुर्वर्ण्य माननेवाले गुरूजी रुढ़िवादी परंपरा के समर्थक थे.सावरकर-हेडगेवार के इससे भिन्न विचार-आचार थे.गुरूजी की अपरिपक्वता के कारण मतभेद थे.सावरकरजी का आदर जो हेडगेवार जी करते थे वह गुरूजी के आचरण में नहीं था.उलटे सावरकर विद्वेष में संघ-महासभा में दुरिया निर्माण की. जहा मुंजे-सावरकर जी सैनिकीकरण की आवश्यकता को प्रखरता पूर्वक रखते थे और हेडगेवार-सुभाष बाबु ने उनकी स्तुति की. उसे गुरूजी ने जोग को हटाकर धुतकारा वीर जी को "रिक्रूट वीर " तक उपाधि दी.
इस सन्दर्भ में श्री.गंगाधर इंदुलकर जी ने लिखा है ,' गोलवलकर यह सब वीर सावरकर जी की बढती लोकप्रियता के कारण कर रहे थे,उन्हें भय था की यदि सावरकर की लोकप्रियता बढ़ी तो युवक वर्ग उनकी ओर आकृष्ट नहीं होगा और संघ नेतृत्व विमुख होगा.' इस पर इंदुलकर ही पूछते है ,' ऐसा करके संघ/ गुरूजी क्या हिन्दुओको संगठित कर रहे थे या विघटित ? ' कांग्रेस, संघ और सावरकर जी को कलंकित करने में सफल नहीं हुई परन्तु गुरूजी के माध्यम से एक दुसरे से दूर करने में मात्र सफल रही.
रा.स्व.संघ प्रवर्तक डॉक्टर धर्मवीर मुंजेजी ने गोलवलकर के हिन्दू महासभा-सावरकर विरोध के कारण १७ मार्च १९४० को " राम सेना " स्थापित की,जगन्नाथ वर्मा जी उसके संचालक थे.बंगाल में " हिन्दू रक्षा दल "गठित किया गया. हिन्दुओ का धर्मान्तरण या महिलाओ का अपहरण जैसी घटना रोकने का सशस्त्र दल सक्रिय हुवा. पुणे में १० मई से २८ मई १९४२ सावरकरनिष्टों का सम्मेलन कार्यवाह क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत गोगटे कर रहे थे,सावरकर जयंती के उपलक्ष में आयोजित इस कार्यक्रम में एक हिन्दू महासभा पूरक संगठन पर विचार हुवा और सावरकर जी की उपस्थिति में " हिन्दू राष्ट्र दल " का गठन कर स्व.शिवराम विष्णु उपाख्य भाऊसाहेब मोडकजी को सरदल चालक घोषित किया गया.मात्र हिन्दू महासभानिष्ठ तिलकवादी संगठन से दूर हो गए. गुरूजी के आत्मघाती निर्णय के कारण पूर्व संघी-सभाई पंडित नथुराम गोडसे जी को " हिन्दुराष्ट्र दल " का निर्माण करना पड़ा था.
शेष रही रामसेना को हिन्दू राष्ट्र दल में विलीन कर स्व.डॉक्टर द.स.परचुरे जी ने मध्य प्रान्त में " हिन्दुराष्ट्र सेना " विस्तारित की.इस सशक्त संगठन के कारण मध्य प्रदेश हिन्दू महासभा का गढ़ बना रहा.गाँधी वध में परचुरेजी आरोपी बने थे.संघ का गाँधी वध में नहीं, सुरक्षा में हाथ था.आगे गुरु गोलवलकर, स्व.कुशाभाऊ ठाकरे,उपाध्याय,सुदर्शनजी ने हिन्दू महासभा में सेंधमारी की.जनसंघ की हिन्दू घाती मानसिकता का प्रदर्शन हुवा.इसलिए मौलिचन्द्र शर्मा जी ने भा.ज.संघ राष्ट्रिय अध्यक्ष का पदत्याग किया.
हिन्दू महासभा वरिष्ठ नेता अधिवक्ता स्व.श्री.माधवराव पाठक जी गुरूजी से मिलने गए थे,हिन्दू महासभा के विषय में गुरूजी ने अपने पेट पर हाथ घुमाकर पूछा ! कहा है हिन्दू सभा ?वह तो यहाँ है ! नयी पीढ़ी को यह समझना चाहिए की, निजी वर्चस्ववाद के कारण इस महानुभाव ने हिन्दू-हिन्दुस्थान को दाव पर लगाकर हिन्दू राजनीती को नेहरू टोपी के निचे रख दिया.
हिंदू महासभा नेताओ की रा.स्व.संघ स्थापना की विशुध्द भावना यह थी की,युवा संस्कार-प्रतिकार क्षमता से ओजस्वी होकर हिंदू महासभा की राजनीतिक पूरकता बने. हिंदू महासभा ने कार्यकर्ता अभियान नही चलाया क्यो की संघ परस्पर पूरक-सहयोगी था.(शिवकुमार मिश्र-१९९८ दिस.जनज्ञान)१९३८ नागपूर अधिवेशन पश्चात वीर सावरकरजी ने १९३९संघ का महासभा मे विलय करने का और डा.हेडगेवारजी के ही नेतृत्व मे "हिंदू मिलेशिया" स्थापना का प्रस्ताव रखा था,संघ प्रवर्तक डा.मुंजे ने प्रयास भी जारी किये परंतु डा.हेडगेवारजी तयार नही हुए.(ले.वा.कृ.दानी-धर्मवीर मुंजे जन्मशताब्दी स्मरणिका) १९३९ कोलकाता हिंदू महासभा अधिवेशन मे गुरु गोलवलकरजी महामंत्री पद का चुनाव हारने के पश्चात हिंदू महासभा की राजनीती-अखंड राष्ट्र की क्षति का प्रामाणिक विचार नही किया ? कडी-साप्ता.गंगा पत्रिका मार्च-अप्रेल १९८७ संघ-सभामे आई दुरीयो की,गोलवळकरजी की कहानी से अधिवक्ता अवस्थी दि.२२फरवरी १९८८ हिं.स.वार्ता मे लिखते है," (क)गुरुजी चुनाव ही न लडते तो,हिंदू महासभा से नाराज न होते तो संभावना थी की,राष्ट्रीय नेता होते.संघ-सभा संबंध रहते.(ख)गुरुजी चुनाव जीत जाते तो हिंदू महासभा का कार्य जोरशोर से करते.संघ की जिम्मेदारी अन्य वहन करता.(ग)गुरुजी चुनाव लडे-हारे उपरोक्त परिस्थितीया संभव थी.परंतु,हिंदू-हिंदुस्थान का दुर्भाग्य था.
गुरुजी ने १९४६ के चुनाव मे नेहरू का साथ दिया.हिन्दू महासभा १६ % वोट पाकर पराभूत हुई। और विभाजन का रास्ता खुल गया." यह चुनाव अखंड भारत तथा हिन्दू महासभा के लिए अहम् था।कांग्रेस के वोट हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग में बट रहे थे और हिन्दू महासभा को सत्ता का दावेदार बनना निश्चित था।नेहरू ने सावरकर-गोलवलकर मतभेदों का लाभ उठाकर गुरूजी को अखंड भारत का अभिवचन दिया।और गुरूजी ने विभाजनकारी नेहरू के षड्यंत्र को अनजाने में या व्यक्ति विद्वेष में सफल किया।
मा.श्री.चित्रभुषण,मॉडल टाउन,दिल्ली (साप्ताहिक हिन्दू सभा वार्ता दि.११ मार्च १९९६) लिखते है,रा.स्व.संघ के कार्यकर्त्ता रहे पत्रकार श्री.गंगाधर इंदुरकर गुरु गोलवलकर के निकट सहयोगी रहे है.इन्होने लिखी पुस्तक ' रा.स्व.संघ अतीत और वर्तमान ' में लिखा है, " जब तक डॉक्टर हेडगेवार जीवित रहे,संघ और सभा के मधुर सम्बन्ध रहे.इन संस्थाओ का आपस में सहयोग रहा.पर डॉक्टर हेडगेवार की अचानक मृत्यु के पश्चात् गुरूजी सर संघचालक बनते ही संघ और सभा में अनबन शुरू हो गयी जिसके कारण हिन्दू-हिन्दुराष्ट्र की बड़ी हानि हुई.लेखक के विचार में इस का ' मुख्य कारण गोलवलकरजी की अपरिपक्वता ही थी.' जहा हिन्दू महासभा के नेता वीर सावरकरजी और (१९३९ राष्ट्रिय उपाध्यक्ष हिन्दू महासभा) हेडगेवारजी परंपरागत रुढियो के विरोध में थे और हिन्दुराष्ट्र शब्द उनके लिए राजनितिक और राष्ट्रिय था वहा गोलवलकर की सोच परंपरागत संस्कृति की थी.गोलवलकर के व्यवहार में सावरकरजी के लिए वह आदर व आत्मीयता नहीं थी जो हेडगेवारजी में सावरकरजी के प्रति थी.
१९३९-४० में हिन्दू महासभा नेता धर्मवीर मुंजे और सावरकरजी की हिन्दू युवको के सैनिकीकरण की भूमिका को हेडगेवारजी ने सराहा था. गोलवलकर ने उसका विरोध करना शुरू किया. इस विरोध का गोलवलकरजी ने स्पष्टीकरण नहीं किया.इंदुरकर के अनुसार सावरकरजी की विचारधारा कुछ सही साबित हुई.पर यह बात उस समय संघ नेतृत्व की समझ में नहीं आ रही थी.गुरूजी के सैनिकीकरण के विरोध का कारण,यह भी हो सकता है कि, उन दिनों भारतभर में और खासकर महाराष्ट्र में सावरकरजी के विचारों की जबरदस्त छाप थी उनके व्यक्तित्व और वाणी का जादू युवकोपर चल रहा था और युवक वर्ग उनसे बहुत आकर्षित हो रहा था. ऐसे में गोलवलकरजी को लगा हो कि अगर यह प्रभाव इस प्रकार बढ़ता गया तो युवको पर संघ की छाप कम हो जाएगी.संभवतः इसलिए,गोलवलकरजी ने सावरकर और हिन्दू महासभा से असहयोग की निति अपनाई हो.इस विषय में लेखक ने संघ के एक वरिष्ठ अधिकारी श्री.आप्पा पेंडसे से हुई बातचीत का जिक्र करते हुए लिखा है कि, ऐसा करके गोलवलकर ने युवको पर सावरकर की छाप पड़ने से तो बचा लिया पर ऐसा करके गोलवलकर ने संघ को अपने उद्देश्य दूर कर दिया.क्या ऐसा करके संघ नेतृत्व ने संगठन की जगह विघटन नहीं किया ? आगे लेखक लिखता है,यही कारण है कि,संघ द्वारा जीवन को जो मोड़ दिया जाना चाहिए था,उसमे संघ असफल रहा."
" हिन्दू महासभा ने संगठनात्मक कार्य रा.स्व.संघ पर सौपकर केवल राजनीती में झोक दिया था. जनमत संगठन के साथ चलता है. राजनीती बौध्दिक आधारों पर ! स्वराज्य प्राप्ति पूर्व देश की राजनीती कांग्रेस के हाथ में थी, संघ कांग्रेस की पोषक !" लेखक गुरुदत्त -
सन १९४५ मेरठ के संघ शिबिर में गुरु गोलवलकर ने गाँधी की भूरी भूरी प्रशंसा की थी. उस काल में संघ का बौध्दिक हिन्दू मत-मतान्तरोका था,श्री पंच रामानंदीय निर्मोही अखाड़े के नागा साधू समर्थ रामदास जी का नाम यह लेते थे. राम-कृष्ण का नाम देश के सभी भागो में चलते थे. इन्होने इस्लाम का विरोध किया परन्तु इस्लाम की राजनीती पर इनका प्रभाव शून्य था. अतः संघ का बौध्दिक नाममात्र और जाती के शरीर को बचने का संगठन, जिसे हम राजनीती कहते है. यही कारन है कि, स्वराज्य मिलने के समय २०-२५ लक्ष स्वयंसेवको के रहते हुए भी संघ कांग्रेस का विरोध देश विभाजन में नहीं कर सका. शरणार्थी हिन्दू जनता की रक्षा का प्रयत्न होता रहा. परन्तु,यह जनमानस का आन्दोलन नहीं बन सका.हमारा मत है कि, संघ का आन्दोलन स्वराज्य की रूप रेखा पर किसी प्रकार प्रभाव उत्पन्न नहीं कर सका.
स्वराज्य के उपरांत, विशेष रूप से १९४८ में संघ को अवैधानिक घोषित करने के उपरांत संघ के कुछ कार्यकर्ताओ के मन में प्रभाव की बात आई थी उस समय संघ के सहस्त्रो स्वयंसेवक और गुरूजी बंदीगृह में थे. कुछ लोगो के मन में आया की कांग्रेस का स्थानापन्न ढूंडना चाहिए और संघ को एक राजनितिक संस्था में बदलने का विचार उत्पन्न हुवा. पं.मौलिचन्द्र शर्मा संघ और सरकार के मध्यस्थ की भूमिका में थे. (इस मध्य गुरूजी-पटेल कारागार भेट हुई.) गुरूजी ने संघ केवल सांस्कृतिक कार्य करेगा ! घोषणा की और इस आश्वासन? पर प्रतिबन्ध हटा. भीतर ही भीतर बात सुलग रही थी, एक राजनितिक दल जो संघ पोषित हो, बनाना चाहिए. उ.भा.संघ चालक बसंतराव ओक (जिन्होंने हिन्दू महासभा भवन में संघ शाखाए लगायी थी.) संघ राजनीती में आये ऐसा दृढ़ मान रहे थे. इनका सम्पर्क सामान्य हिन्दू जनता के साथ व्यापक था. (इस मध्य श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नेहरू विरोध-हिन्दू महासभा से हिन्दू शब्द निकालने का प्रस्ताव आगे उजागर हुवा.)
संघ नेता हिन्दू महासभा से उलट व्यवहार रखते प्रतीत हुए. जहा हिन्दू महासभा हिंदुत्व की राजनीती को ही चलाना चाहती थी, वहा संघ केवल मात्र हिन्दू नाम पर संगठन से सफलता प्राप्त करने का यत्न करता था. मुखर्जी ने मंत्री मंडल से त्यागपत्र देते ही ओक जैसे राजनितिक उद्दिष्ट के संघ नेता उनसे मिलने लगे. ओक जी को संघ नेतृत्व ने पसंद नहीं किया. श्री.मधोक उन दिनों श्रीनगर में प्राध्यापक थे. कश्मीर में पाकिस्तान की घुसपैठ के पश्चात् वहा के लोगो का मनोबल टूटने नहीं दिया. संघ नेता राजनीती से पृथक रखने का सर तोड़ यत्न करते रहते थे. फिर भी १९५१ कानपुर में जनसंघ के महामंत्री पद पर ओक नियुक्त होने लगे थे तो उनके स्थानपर संघ कार्यकर्त्ता पं.दीनदयाल उपाध्याय को आगे किया. उस समय वह कही भी ख्याति नहीं रखते थे. इस बात का संदेह किया जाता रहा है कि, जब भी जनसंघ कांग्रेस के विरुध्द एक बलशाली राजनितिक दल बन जाता है संघ के अधिकारी उनकी टांग घसीट लेते है. परिणाम यह होता है कुछ लोग हिन्दू विचारधारा के पोषण के लिए इसमें आते है , उनको उभरने नहीं दिया जाता. अतः यह दल संघ की उपसमिति मात्र ही बन रहा है.
प्रश्न यह है कि,हिन्दू सांस्कृतिक विचारवालों का राज्य इस देश में हो अथवा न हो ? इसकी नितांत आवश्यकता है. एक प्राचीन, अति श्रेष्ठ, मानव की उन्नत्ति का साधन जो इस देश के मनीषीयोने अपने त्याग और तपस्या से जीवित रखा हुवा है, उसको जीवित रखने के लिए हिंदुत्व की राजनीती प्रचलित होनी चाहिए. वह इस समय देश में नहीं है.
राजनितिक आंदोलनों पर अधिकार पाना सफलता का साधन है.हिंदुत्व के वास्तविक गौरव की स्पष्ट रुपरेखा को सन्मुख रखकर हिंदुत्व को एक राष्ट्र का रूप देना. इसमें मुख्यतः गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर राजनीती प्रचलित करना. जाती की प्राचीन उपलब्धियों पर आघात से रक्षा के लिए राज्यसत्ता का सञ्चालन.
वर्तमान में अबुध्द विचारधारा का शासन चल रहा है. इसका विरोध होना चाहिए. पूर्ण हिन्दू समाज को सांस्कृतिक आधार देना असंभव है परन्तु अभारतीय आसुरी शिक्षा के व्यापक प्रचार को हिन्दू समाज का साँझा आधार बनाने का प्रयास में योगदान हो.
हिन्दू संगठनो को मिलकर एक साँझा कार्यक्रम बनाना चाहिए ; एक सांस्कृतिक और एक राजनितिक दिशा में.रोटी-कपड़ा-मकान शारीरिक आवश्यकताए है जो जीवन का एक न्यून अंश है.
सन्दर्भ ग्रन्थ-हिंदुत्व की यात्रा-ले.गुरुदत्त "शाश्वत संस्कृति परिषद्" ३०/९० कनोट सरकस,नई दिल्ली-१
सन्दर्भ:-मराठी दैनिक सनातन प्रभात दिनांक २५ मार्च २०१२ पृष्ठ ३ से
श्रीराम सेना अध्यक्ष श्री.प्रमोद मुतालिक जी की रा.स्व.संघ के लिए प्रतिक्रिया रा.स्व.संघ की ओर से छोटी हिन्दू संगठनाओ के प्रति द्वेष भावना देखकर उनमे विचित्र मानसिक भावना वृध्दिंगत हुई है ऐसा प्रतीत हुवा. बड़ी मछली छोटे मछली को निगल जाती है उसी प्रकार संघ छोटे हिन्दू संगठनों को कुचलते है.हिन्दू जागरण वेदिके की स्थापना एक नमूना ! सब कुछ नियंत्रण हमारे हाथ हो,जैसे हम कहे वहि, उतना ही करे ! ऐसे अलिखित नियम बनाये गए है. जी हुजूरी करने का दुष्परिणाम यह हुवा की संघ की हानि होती जा रही है और उनके आंकलन में नहीं आ रहा यह हिन्दुओ का दुर्भाग्य ! कांग्रेस ने मालेगाव ब्लास्ट का आरोप हिन्दुओ पर मढ़ा उसपर मौन धारण किया.संघ हिंदुत्व की रक्षा के लिए है या हिंदुओंकी बलि चढाने? जब आंच इन्द्रेश कुमार तक आई तब निषेध करने मैदान में उतरे.श्रीराम सेना,सनातन संस्था,हिन्दू जागृति समिति,हिन्दू मक्कल कच्ची,हिन्दू संघती अपनी क्षमता के अनुसार जो भी कार्य कर रहे है उन्हें प्रोत्साहन देने के बजाय उनका द्वेष,मत्सर,अपमान करना शोभा नहीं देता.सहकार्य नहीं और अन्य हिन्दू संगठनाओ को समाप्त करने की योजना बनाना बौध्दिक दिवालियापन है.श्रीराम सेना के विरोध में कन्नड़ समाचार पत्र होसदिगंत में लिखनेवाले हिन्दू जागरण वेदिके के जगदीश कारंथ ने लेख लिखकर श्रीराम सेना पर रंगदारी का आरोप लगाकर प्रतिबन्ध डालने की मांग की.
संघ का अन्य हिन्दू संगठनो प्रति भाव यही है की एकमात्र रा.स्व.संघ अस्तित्व में रहे ; हिंदुत्व का कार्य संघ के अलावा अन्य कोई न करे.संघ धन और सत्ता के मोह में भटक रहा है.संघ की हानि से देश की हानि होगी स्वयं भी गड्ढे में जायेंगे और हिंदुत्व की भी हानि करेंगे ! ज्येष्ठ अनुभवी पदाधिकारी इस विकृति को रोककर स्वच्छ वातावरण की निर्मिती करे अन्यथा अन्य हिन्दुत्ववादी संगठनों को गाम्भीर्यपूर्वक विचार करना पड़ेगा. इति-मुतालिक