Wednesday, 24 October 2018

वन्दे मातरम राष्ट्रिय चेतना मन्त्र


वन्दे मातरम राष्ट्रिय चेतना मन्त्र के उद्गाता तथा "आनंद मठ" उपन्यास के लेखक क्रां.बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के सन्दर्भ में

दिनांक २७ जून १८३८ को जन्मे श्री.बंकिमचन्द्र जी सन १८५८-१८९१ प्रशासनिक सेवा (डेप्युटी मजिस्ट्रेट) थे.उनके द्वारा रचा क्रांती मन्त्र "वन्दे मातरम" सन १८७५ के कार्तिक शु.नवमी को 'बंग दर्शन' में प्रस्तुत हुवा,२० जुलाई १८७९ को क्रां.वासुदेव बलवंत फडके जी को बंदी बनाया गया तब बंकिम जी हुगली में पदासीन थे.उस समय "अमृत बाजार" पत्रिका ने फडके जी का आत्म चरित्र प्रकाशित किया था.१८८० तक यह क्रांती गीत सर्वतोमुख हो गया.सन १८८० में आनंद मठ के अंतिम प्रकरण भी लिखकर पूर्ण हुए उनपर क्रां.फडके जी का प्रभाव है.सन १८८२ में प्रकाशित 'आनंद मठ' उपन्यास में (गव्हर्नर वोरेन हेस्टिंग्स के अनुसार तिब्बत से काबुल तक के प्रदेश में १७६२-१७७४ के बल्वाखोर योध्दा-साधुओ का) क्रान्तिगित के रूप में 'वन्दे मातरम' को समाविष्ट किया गया.दिनांक ८ अप्रेल १८९४ को बंकिम चटर्जी का देहावसान हुवा परन्तु "हिन्दुराज्य"की प्रेरणा देनेवाले कवी-उपन्यासकार मरणोत्तर चिरंजीव हुए.

         ब्रिटिश हिन्दुस्थान की राजधानी बंगाल कोलकाता थी.१ सप्तम्बर १९०५ बंगाल विभाजन की घोषणा हुई और साथ साथ विरोध में बंग-भंग आन्दोलन.बंग साज का संस्कृत "वन्दे मातरम" लोर्ड कर्झन की दृष्टी में राजद्रोह का प्रतिक बना लेफ्टनंट गव्हर्नर फुलर ने वन्दे मातरम पर प्रतिबन्ध लगाकर बंदी बनाने का कार्य आरम्भ किया.परिणाम स्वरुप बाबु सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी के नेतृत्व में 'बंदी विरोधी समिति' गठित हुई और १४ अप्रेल १९०६ बारीसाल में प्रांतीय अधिवेशन आमंत्रित किया. उसे नाकाम करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने ६०० गुरखाओ की पलटन लगा दी.दूसरी ओर अधिवेशन की सफलता के लिए बंगाली जुट चुके थे.शोभा यात्रा वन्दे मातरम के साथ सड़क पर निकली और ब्रिटिश जवान यात्रा पर टूट पड़े,लाठिया बरसाकर रक्तरंजित कर दिया इस मार से कोई नहीं बचा.सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी,मोतीलाल घोष,बिपिनचंद्र पाल,अरविन्द घोष के साथ अधिवेशन अध्यक्ष बैरिस्टर अब्दुल रसूल भी घायल हुए.७ अगस्त १९०५ अरविन्द घोष जी ने कर्झन के विरोध में बंगाल तयार होने की घोषणा की.                                                                               



            राष्ट्र भक्ति और राष्ट्रशक्ति को 'वन्दे मातरम' गीत ने स्वत्व की जागृति प्रदान की.राष्ट्र भक्ति का प्रचंड प्रवाह जन जन में स्थापित किया.एक प्रचंड शक्ति देश में खडी हुई.भक्ति और शक्ति के इस प्रवाह में अनेक अवरोध आये उन्हें तोड़ फोड़ कर यह प्रवाह बढ़ता ही रहा.स्वाधीनता प्राप्ति तक अनेक वीर विभूतियों ने इस क्रांति सूत्र को पकड़कर मार खायी,बंदिवास झेला,फांसी पर झूमते हुए वन्दे मातरम का नारा दिया.

           श्री रामकृष्ण परमहंस और बंकिम चन्द्र जी की भेट १८८४ में हुई, बंकिम जी ने परमहंस जी को अपने निवास पर आमंत्रित किया था.वह नहीं जाकर अपने शिष्य नरेंद्र को अन्य शिष्यों के साथ भेज दिया.परमहंस जी के समक्ष आनंद मठ अन्य बंकिम जी के उपन्यास पढ़े जाते थे.विवेकानंद जी के प्रवचनों से यह संकेत मिलते है.                                                                                                                                                                                         

            वन्दे मातरम क्रांति गीत पहली बार सार्वजनिक स्तर पर कविवर रविन्द्रनाथ ठाकुर जी ने १८९६ कोलकाता कांग्रेस अधिवेशन में अपनी रचना में गाया. पं.विष्णु दिगंबर पलुस्कर जी ने इसे 'काफी राग' में निबध्द किया,फिर इस गीत को मास्टर कृष्णराव फुलंब्रीकर जी ने 'झिंझोटी राग'में प्रस्तुत किया.

             सन १९१५ बैसाखी के कुम्भ पर्व हरिद्वार में दिनांक १३ अप्रेल को अखिल भारत हिन्दू महासभा संस्थापन में पहुंचे बैरिस्टर मो.क.गाँधी ने लिखा था की,"बंकिम बाबु द्वारा लिखा वन्दे मातरम गीत समुचे बंगाल में बहुत लोकप्रिय है और स्वदेशी आन्दोलन में लाखो लोगो ने इसे एक साथ गाया तो ऐसा लगा की यह राष्ट्रगीत बन चूका है.वन्दे मातरम का एकमात्र लक्ष है हमारे अन्दर देशभक्ति जागृत करना.यह गीत भारत को माता मानता है और उसके प्रशंसा के गीत गाता है."

             १९०१ पश्चात् कांग्रेस अधिवेशनो में God Save..... के साथ सम्पूर्ण 'वन्दे मातरम' नियमित रूप से गाया जाता रहा.१९२३ काकीनाडा कांग्रेस अधिवेशन अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद अली की आपत्ति के पश्चात् भी पं.पलुस्कर जी ने उल्हासपूर्वक वंदे मातरम गाया.परन्तु इस आपत्ति ने मुसलमानों में अलगाववाद का बीजारोपण किया.

१९३७ विधान सभा चुनावो में कांग्रेस को भारी जित प्राप्त हुई और विधान सभा की कार्यवाही 'वन्दे मातरम' से आरम्भ हुई तब मुस्लिम लीग ने बहिष्कार किया. इसी वर्ष मुस्लिम लीग का कोलकाता में अधिवेशन हुवा,उसमे 'वन्दे मातरम' धार्मिक हित और उनके हितो के विरोधी गहरा षड्यंत्र कहकर प्रस्ताव पारित हुवा.यही से विरोध आरम्भ हुवा और इस विरोध को शांत करने राजनितिक प्रयास में कांग्रेस ने 'वन्दे मातरम ' का अंगच्छेदन किया ऐसा करने के पश्चात् मौलाना रेजाउल करीम ने "बंकिमचंद्र और मुस्लिम समाज" में लिखा, ' कांग्रेस यदि जिन्ना समर्थको को संतुष्ट करने के लिए सम्पूर्ण गीत भी हटा देती है तो भी एक मुस्लिम भी कांग्रेस में समाविष्ट नहीं होगा.' वहि खिलाफत आन्दोलन में मौलाना अकरम,मोहम्मद अली,जाफर अली,हसरत मोहानी आदि अनेक मुस्लमान 'वन्दे मातरम' के भक्त थे. उन्हें कभी कुराण-हदीस में वन्दे मातरम विरोधी कोई आदेश नहीं मिला ?



लोकसभा में बुधवार 8 मई 2013 को वंदे मातरम के अपमान मामले पर बीएसपी सांसद शफीकुर्रहमान बर्क ने कहा कि इस्लाम के खिलाफ है वंदे मातरम... http://bit.ly/12Y4Yvu

          अखंड हिन्दुस्थान का धार्मिक आधार पर भौगोलिक बटवारा करने के पश्चात् संविधान लागु होने पूर्व राष्ट्रिय गान पर प्रस्ताव स्थगन का खेल चलता रहा. अंततः २५ अगस्त १९४८ को संविधान सभा में पं.नेहरू ने स्पष्टीकरण किया था. ' संयुक्त राष्ट्र संघ १९४७ की जनरल असेम्बली में हमारे प्रतिनिधि से राष्ट्रगान की मांग की गयी तब उपयुक्त राष्ट्रगान की रेकोर्डिंग नहीं थी.प्रतिनिधि के पास 'जन गण मन' का रेकोर्ड था और ओर्केस्टा को पूर्व तयारी के लिए दे रखा था.उसे संगीत के साथ बजाया और सभी को पसंद आया.तबसे विदेश दूतावास में बजाया जाता है.मंत्री मंडल में निर्णय किया है की संविधान सभा में अंतिम निर्णय न हो जाने तक 'जन गण मन' ही राष्ट्रगान के रूप में गाया जाता रहेगा.बंगाल सरकार ने 'वन्दे मातरम' को राष्ट्रगान बनाये रखने का प्रस्ताव दिया है.' "वन्दे मातरम" स्पष्टतः और निर्विवाद रूप से भारत का प्रमुख राष्ट्रिय गीत है.हमारे स्वतंत्रता इतिहास से इसका निकट सम्बन्ध है.इसका ध्यान सदा बना रहेगा और कोई दूसरा गीत से विस्थापित नहीं कर सकता,यह संग्राम की भावना अभीव्यक्त करता है ! "

          २४ जनवरी १९५० खंडित हिन्दुस्थान के संविधान सभा के सदस्यों के नव निर्मित संविधान पर हस्ताक्षर पूर्व सभापति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद जी ने राष्ट्रगान के सम्बन्ध में विवृत्ति दी.संविधान सभा में राष्ट्रिय गान पर प्रस्ताव द्वारा निर्णय करना था जो नहीं हुवा था और प्रस्ताव लेने का समय नहीं बचा ? था. अतः उन्होंने विवृत्ति देते हुए कहा कि, " जन गण मन अधिनायक " को राष्ट्रगान एवं " वन्दे मातरम" को राष्ट्रिय गीत के रूप में स्वीकार किया जाता है,दोनों को बराबर सन्मान प्राप्त होगा.आशा है कि सभी लोग इससे सहमत होगे. ब्रिटिश दास नेहरू ने जोर्ज पंचम के स्वागत में अधिनायक बनाकर लिखा टागोर के गीत को राष्ट्रगान बनाने के विरोध में हिन्दू महासभाई धारा से जुड़े कांग्रेस अध्यक्ष पुरुषोत्तमदास टंडन जी ने अध्यक्ष पद से तत्काल त्यागपत्र दिया.

         अखिल भारत हिन्दू महासभा वन्दे मातरम कि आग्रही रही है.मुंबई के महमद उमर रजब उर्दू पाठशाला में वन्दे मातरम के विरोध में आवाज उठी तब विधायको ने विधान सभा में 'वन्दे मातरम' का समर्थन किया.१ मार्च १९७३ विधान सभा पर हिन्दू महासभा ने मोर्चा निकाला दूसरी ओर कुछ महिला कार्यकर्ता विधान सभा के प्रेक्षागार में बैठी थी उन्होंने अवसर पाकर " वन्दे मातरम " की घोषणा देकर राष्ट्रद्रोहियो को हिन्दुस्थान से बाहर करने की मांग की.सभागृह में हस्त पत्रक फेंक कर नारा लगाया, " यदि भारत में रहना है तो वन्दे मातरम कहना होगा ! " इस आक्रामक कृति के कारन श्रीमती देविदास तेलंग, मानिनी हर्ष सावरकर को २ दिन बंदिवास और वर्षा पंडितराव बखले तथा अलका लक्ष्मनराव साटेलकर को अवयस्क होने के कारन छोड़ दिया.शोलापुर में धर्मवीर वि.रा.पाटिल हिन्दू महासभा विधायक ने जनसभा लेकर वन्दे मातरम विरोधियो को देश छोड़कर जाने का आवाहन किया था.     

Dt.7 April 2012




Monday, 8 October 2018

विजया दशमी ! रा.स्व.संघ स्थापना दिवस !

23 October 2012 at 18:13


       * रा.स्व.संघ प्रवर्तक हिन्दू महासभा नेता धर्मवीर डॉ.बा.शि.मुंजे जी के मानस पुत्र डॉ.के.ब. हेडगेवार ,१९२२ लाहोर हिन्दू स्वयं सेवक संघ संस्थापक क्रांतिकारी भाई परमानन्द छिब्बर,संत पांचलेगावकर महाराज ( गढ़ मुक्तेश्वर दल संचालक)  क्रांतिकारी ग.दा.सावरकर ( तरुण हिन्दू सभा ),परांजपे,बापू साहब सोनी जी ने 'हिन्दू युवक सभा' की नींव सन १९२५ विजया दशमी को रखी थी.उसका कार्यवहन डॉ.हेडगेवारजी को वाराणसी दंगा नियंत्रण के अनुभव पर वीर सावरकरजी को शिरगाव-रत्नागिरी में मिलकर आने के पश्चात् सौपा गया था. इन दोनों महानुभावो के विचारो में साम्यता थी,'जब तक हिन्दू अन्धविश्वास,रूढ़ीवादी सोच,धार्मिक आडम्बर नहीं छोड़ेंगे और छुवाछुत अगड़ा-पिछड़ा और क्षेत्रवाद में बंटा रहेगा,वह संगठित नहीं होगा तब तक वह संसार में अपना उचित स्थान नहीं ले पायेगा !' वीर जी की प्रेरणा से बना पतित पवन मंदिर-रत्नागिरी उसका साक्षात् उदाहरण है.

        * वीर सावरकर जी १९३७ अनिर्बंध मुक्त हुए और २७ दिसंबर कर्णावती अखिल भारत हिन्दू महासभा राष्ट्रिय अधिवेशन में भाई श्री परमानन्द जी ने उन्हें राष्ट्रिय अध्यक्ष पद की माला पहनाई.अपने अध्यक्षीय भाषण में वीर जी ने कहा था,"हम साहस के साथ वास्तविकता का सामना करे.भारत को आज एकात्म और एकरस राष्ट्र नहीं माना जा सकता,प्रत्युत यहाँ दो राष्ट्र है !" इस वाक्य को मा.सरसंघचालक  सुदर्शन जी ने दुर्भाग्यपूर्ण कहकर ,'उसके कारणपरोक्ष रूप से जिन्ना के द्विराष्ट्र वाद का ही अनजाने में अनचाहे समर्थन हो गया !' श्री.हो.वे.शेषाद्री जी ने 'और देश बट गया' पुस्तक में,'सावरकर द्वारा भारत में दो राष्ट्र स्वीकार करना उचित नहीं ठहराया जा सकता.' परन्तु वीर सावरकर जी ने १८अक्टूबर १९३७ मुस्लिम लीग के लखनऊ अधिवेशन में  पारित प्रस्तावों के अनुरूप जो, संकेत दिए वह द्विराष्ट्रवाद के समर्थन में नहीं थे अपितु,मुस्लिम राष्ट्र के धोखे को भापकर उसे गहरा पैठा रोग बताया और उसकी चिंता करने के लिए आवाहन किया था.

* सन १९३८ वीर जी दूसरी बार राष्ट्रिय अध्यक्ष बने नागपुर अखिल भारत हिन्दू महासभा अधिवेशन के संयोजक डॉ.हेडगेवार जी थे,वीर सावरकर जी को सैनिकी मानवंदना दी गयी.विशाल शोभायात्रा में पूर्व सरसंघ चालक स्व.श्री.भाउराव देवरसजी केसरिया ध्वज के साथ हाथीपर बैठकर अगुवाई कर रहे थे.

  * सन १९३९ कोलकाता अधिवेशन में वीर जी तीसरी बार अध्यक्ष बने डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी के संयोजन में यह अधिवेशन संपन्न हुवा. पूर्व न्या.श्री.निर्मलचन्द्र चटर्जी,गोरक्ष पीठ महंत श्री दिग्विजय नाथ जी,डॉ.हेडगेवार जी,गुरु गोलवलकर जी ,श्री.बाबा साहब घटाटे जी उपस्थित थे.इस अधिवेशन में अन्य पदोंके लिए चुनावी प्रक्रिया हुई,सचिव पद के लिए सर्व श्री इन्द्रप्रकाश-८० वोट,गोलवलकर-४० वोट,ज्योति शंकर दीक्षित-२ वोट मैदान में थे, इन्द्रप्रकाश चयनित हुए. डॉ.हेडगेवार राष्ट्रिय उपाध्यक्ष तो श्री.घटाटे राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य चुने गए.श्री.गोलवलकर जी हार से सावरकर जी पर चिढ गए और समर्थको समेत हिन्दू महासभा से हट गए.डॉ.हेडगेवारजी ने उन्हें मनाया और रा.स्व.संघ में पद देकर सावरकर विरोध शांत किया. परन्तु,वीर सावरकरजी को द्रष्टा कहा जाता है उसका और एक प्रमाण,सावरकरजी ने त्वरित रा.स्व.संघ का हिन्दू महासभा में विलय और हिन्दू मिलिशिया की स्थापना का प्रस्ताव रखा उसे संघ प्रवर्तक धर्मवीर मुंजे जी ने भी मान्यता दी परन्तु गुरूजी के सम्मोहन में फंसे बाबाराव सावरकरजी ने मना किया,अन्यथा अखंड भारत विभाजन न होता.

   

    डॉ.हेडगेवार जी की अकस्मात् मृत्यु ? के बाद मोरोपंत  पिंगले जी को सर संघचालक बनना था परन्तु,गुरूजी ने सरसंघ चालक पद कब्ज़ा किया। तत्काल उन्होंने सावरकर समर्थक सैनिकी शिक्षा शिक्षक श्री.मार्तंडेय राव जोग को पदच्युत कर सैनिकी शिक्षा विभाग बंद किया. चातुर्वर्ण्य माननेवाले गुरूजी रुढ़िवादी परंपरा के समर्थक थे.सावरकर-हेडगेवार के इससे भिन्न विचार-आचार थे.गुरूजी की अपरिपक्वता के कारण मतभेद थे.सावरकरजी का आदर जो हेडगेवार जी करते थे वह गुरूजी के आचरण में नहीं था.उलटे सावरकर विद्वेष में संघ-महासभा में दुरिया निर्माण की. जहा मुंजे-सावरकर जी सैनिकीकरण की आवश्यकता को प्रखरता पूर्वक रखते थे और हेडगेवार-सुभाष बाबु ने उनकी स्तुति की. उसे गुरूजी ने जोग को हटाकर धुतकारा वीर जी को "रिक्रूट वीर " तक उपाधि दी.

 इस सन्दर्भ में श्री.गंगाधर इंदुलकर जी ने लिखा है ,' गोलवलकर यह सब वीर सावरकर जी की बढती लोकप्रियता के कारण कर रहे थे,उन्हें भय था की यदि सावरकर की लोकप्रियता बढ़ी तो युवक वर्ग उनकी ओर आकृष्ट नहीं होगा और संघ नेतृत्व विमुख होगा.' इस पर इंदुलकर ही पूछते है ,' ऐसा करके संघ/ गुरूजी क्या हिन्दुओको संगठित कर रहे थे या विघटित ? ' कांग्रेस,  संघ और सावरकर जी को कलंकित करने में सफल नहीं हुई परन्तु गुरूजी के माध्यम से एक दुसरे से दूर करने में मात्र सफल रही.

            रा.स्व.संघ प्रवर्तक डॉक्टर धर्मवीर मुंजेजी ने गोलवलकर के हिन्दू महासभा-सावरकर विरोध के कारण १७ मार्च १९४० को " राम सेना " स्थापित की,जगन्नाथ वर्मा जी उसके संचालक थे.बंगाल में " हिन्दू रक्षा दल "गठित किया गया. हिन्दुओ का धर्मान्तरण या महिलाओ का अपहरण जैसी घटना रोकने का सशस्त्र दल सक्रिय हुवा. पुणे में १० मई से २८ मई १९४२ सावरकरनिष्टों का सम्मेलन कार्यवाह क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत गोगटे कर रहे थे,सावरकर जयंती के उपलक्ष में आयोजित इस कार्यक्रम में एक हिन्दू महासभा पूरक संगठन पर विचार हुवा और सावरकर जी की उपस्थिति में " हिन्दू राष्ट्र दल " का गठन कर स्व.शिवराम विष्णु उपाख्य भाऊसाहेब मोडकजी को सरदल चालक घोषित किया गया.मात्र हिन्दू महासभानिष्ठ तिलकवादी संगठन से दूर हो गए. गुरूजी के आत्मघाती निर्णय के कारण पूर्व संघी-सभाई पंडित नथुराम गोडसे जी को " हिन्दुराष्ट्र दल " का निर्माण करना पड़ा था.

            शेष रही रामसेना को हिन्दू राष्ट्र दल में विलीन कर स्व.डॉक्टर द.स.परचुरे जी ने मध्य प्रान्त में " हिन्दुराष्ट्र सेना " विस्तारित की.इस सशक्त संगठन के कारण मध्य प्रदेश हिन्दू महासभा का गढ़ बना रहा.गाँधी वध में परचुरेजी आरोपी बने थे.संघ का गाँधी वध में नहीं, सुरक्षा में हाथ था.आगे गुरु गोलवलकर, स्व.कुशाभाऊ ठाकरे,उपाध्याय,सुदर्शनजी ने हिन्दू महासभा में सेंधमारी की.जनसंघ की हिन्दू घाती मानसिकता का प्रदर्शन हुवा.इसलिए मौलिचन्द्र शर्मा जी ने भा.ज.संघ राष्ट्रिय अध्यक्ष का पदत्याग किया.

 हिन्दू महासभा वरिष्ठ नेता अधिवक्ता स्व.श्री.माधवराव पाठक जी गुरूजी से मिलने गए थे,हिन्दू महासभा के विषय में गुरूजी ने अपने पेट पर हाथ घुमाकर पूछा ! कहा है हिन्दू सभा ?वह तो यहाँ है ! नयी पीढ़ी को यह समझना चाहिए की, निजी वर्चस्ववाद के कारण इस महानुभाव ने हिन्दू-हिन्दुस्थान को दाव पर लगाकर हिन्दू राजनीती को नेहरू टोपी के निचे रख दिया.


 हिंदू महासभा नेताओ की रा.स्व.संघ स्थापना की विशुध्द भावना यह थी की,युवा संस्कार-प्रतिकार क्षमता से ओजस्वी होकर हिंदू महासभा की राजनीतिक पूरकता बने. हिंदू महासभा ने कार्यकर्ता अभियान नही चलाया क्यो की संघ परस्पर पूरक-सहयोगी था.(शिवकुमार मिश्र-१९९८ दिस.जनज्ञान)१९३८ नागपूर अधिवेशन पश्चात वीर सावरकरजी ने १९३९संघ का महासभा मे विलय करने का और डा.हेडगेवारजी के ही नेतृत्व मे "हिंदू मिलेशिया" स्थापना का प्रस्ताव रखा था,संघ प्रवर्तक डा.मुंजे ने प्रयास भी जारी किये परंतु डा.हेडगेवारजी तयार नही हुए.(ले.वा.कृ.दानी-धर्मवीर मुंजे जन्मशताब्दी स्मरणिका) १९३९ कोलकाता हिंदू महासभा अधिवेशन मे गुरु गोलवलकरजी महामंत्री पद का चुनाव हारने के पश्चात हिंदू महासभा की राजनीती-अखंड राष्ट्र की क्षति का प्रामाणिक विचार नही किया ? कडी-साप्ता.गंगा पत्रिका मार्च-अप्रेल १९८७ संघ-सभामे आई दुरीयो की,गोलवळकरजी की कहानी से अधिवक्ता अवस्थी दि.२२फरवरी १९८८ हिं.स.वार्ता मे लिखते है," (क)गुरुजी चुनाव ही न लडते तो,हिंदू महासभा से नाराज न होते तो संभावना थी की,राष्ट्रीय नेता होते.संघ-सभा संबंध रहते.(ख)गुरुजी चुनाव जीत जाते तो हिंदू महासभा का कार्य जोरशोर से करते.संघ की जिम्मेदारी अन्य वहन करता.(ग)गुरुजी चुनाव लडे-हारे उपरोक्त परिस्थितीया संभव थी.परंतु,हिंदू-हिंदुस्थान का दुर्भाग्य था.
गुरुजी ने १९४६ के चुनाव मे नेहरू का साथ दिया.हिन्दू महासभा १६ % वोट पाकर पराभूत हुई। और विभाजन का रास्ता खुल गया." यह चुनाव अखंड भारत तथा हिन्दू महासभा के लिए अहम् था।कांग्रेस के वोट हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग में बट रहे थे और हिन्दू महासभा को सत्ता का दावेदार बनना निश्चित था।नेहरू ने सावरकर-गोलवलकर मतभेदों का लाभ उठाकर गुरूजी को अखंड भारत का अभिवचन दिया।और गुरूजी ने विभाजनकारी नेहरू के षड्यंत्र को अनजाने में या व्यक्ति विद्वेष में सफल किया।



      मा.श्री.चित्रभुषण,मॉडल टाउन,दिल्ली (साप्ताहिक हिन्दू सभा वार्ता दि.११ मार्च १९९६) लिखते है,रा.स्व.संघ के कार्यकर्त्ता रहे पत्रकार श्री.गंगाधर इंदुरकर गुरु गोलवलकर के निकट सहयोगी रहे है.इन्होने लिखी पुस्तक ' रा.स्व.संघ अतीत और वर्तमान ' में लिखा है, " जब तक डॉक्टर हेडगेवार जीवित रहे,संघ और सभा के मधुर सम्बन्ध रहे.इन संस्थाओ का आपस में सहयोग रहा.पर डॉक्टर हेडगेवार की अचानक मृत्यु के पश्चात् गुरूजी सर संघचालक बनते ही संघ और सभा में अनबन शुरू हो गयी जिसके कारण हिन्दू-हिन्दुराष्ट्र की बड़ी हानि हुई.लेखक के विचार में इस का ' मुख्य कारण गोलवलकरजी की अपरिपक्वता ही थी.' जहा हिन्दू महासभा के नेता वीर सावरकरजी और (१९३९ राष्ट्रिय उपाध्यक्ष हिन्दू महासभा) हेडगेवारजी परंपरागत रुढियो के विरोध में थे और हिन्दुराष्ट्र शब्द उनके लिए राजनितिक और राष्ट्रिय था वहा गोलवलकर की सोच परंपरागत संस्कृति की थी.गोलवलकर के व्यवहार में सावरकरजी के लिए वह आदर व आत्मीयता नहीं थी जो हेडगेवारजी में सावरकरजी के प्रति थी.



               १९३९-४० में हिन्दू महासभा नेता धर्मवीर मुंजे और सावरकरजी की हिन्दू युवको के सैनिकीकरण की भूमिका को हेडगेवारजी ने सराहा था. गोलवलकर ने उसका विरोध करना शुरू किया. इस विरोध का गोलवलकरजी ने स्पष्टीकरण नहीं किया.इंदुरकर के अनुसार सावरकरजी की विचारधारा कुछ सही साबित हुई.पर यह बात उस समय संघ नेतृत्व की समझ में नहीं आ रही थी.गुरूजी के सैनिकीकरण के विरोध का कारण,यह भी हो सकता है कि, उन दिनों भारतभर में और खासकर महाराष्ट्र में सावरकरजी के विचारों की जबरदस्त छाप थी उनके व्यक्तित्व और वाणी का जादू युवकोपर चल रहा था और युवक वर्ग उनसे बहुत आकर्षित हो रहा था. ऐसे में गोलवलकरजी को लगा हो कि अगर यह प्रभाव इस प्रकार बढ़ता गया तो युवको पर संघ की छाप कम हो जाएगी.संभवतः इसलिए,गोलवलकरजी ने सावरकर और हिन्दू महासभा से असहयोग की निति अपनाई हो.इस विषय में लेखक ने संघ के एक वरिष्ठ अधिकारी श्री.आप्पा पेंडसे से हुई बातचीत का जिक्र करते हुए लिखा है कि, ऐसा करके गोलवलकर ने युवको पर सावरकर की छाप पड़ने से तो बचा लिया पर ऐसा करके गोलवलकर ने संघ को अपने उद्देश्य दूर कर दिया.क्या ऐसा करके संघ नेतृत्व ने संगठन की जगह विघटन नहीं किया ? आगे लेखक लिखता है,यही कारण है कि,संघ द्वारा जीवन को जो मोड़ दिया जाना चाहिए था,उसमे संघ असफल रहा."



        " हिन्दू महासभा ने संगठनात्मक कार्य रा.स्व.संघ पर सौपकर केवल राजनीती में झोक दिया था. जनमत संगठन के साथ चलता है. राजनीती बौध्दिक आधारों पर ! स्वराज्य प्राप्ति पूर्व देश की राजनीती कांग्रेस के हाथ में थी, संघ कांग्रेस की पोषक !" लेखक गुरुदत्त -

             सन १९४५ मेरठ के संघ शिबिर में गुरु गोलवलकर ने गाँधी की भूरी भूरी प्रशंसा की थी. उस काल में संघ का बौध्दिक हिन्दू मत-मतान्तरोका था,श्री पंच रामानंदीय निर्मोही अखाड़े के नागा साधू समर्थ रामदास जी का नाम यह लेते थे. राम-कृष्ण का नाम देश के सभी भागो में चलते थे. इन्होने इस्लाम का  विरोध किया परन्तु इस्लाम की राजनीती पर इनका प्रभाव शून्य था. अतः संघ का बौध्दिक नाममात्र और जाती के शरीर को बचने का संगठन, जिसे हम राजनीती कहते है. यही कारन है कि, स्वराज्य मिलने के समय २०-२५ लक्ष स्वयंसेवको के रहते हुए भी संघ कांग्रेस का विरोध देश विभाजन में नहीं कर सका. शरणार्थी हिन्दू जनता की रक्षा का प्रयत्न होता रहा. परन्तु,यह जनमानस का आन्दोलन नहीं बन सका.हमारा मत है कि, संघ का आन्दोलन स्वराज्य की रूप रेखा पर किसी प्रकार प्रभाव उत्पन्न नहीं कर सका.

             स्वराज्य के उपरांत, विशेष रूप से १९४८ में संघ को अवैधानिक घोषित करने के उपरांत संघ के कुछ कार्यकर्ताओ के मन में प्रभाव की बात आई थी उस समय संघ के सहस्त्रो स्वयंसेवक और गुरूजी बंदीगृह में थे. कुछ लोगो के मन में आया की कांग्रेस का स्थानापन्न ढूंडना चाहिए और संघ को एक राजनितिक संस्था में बदलने का विचार उत्पन्न हुवा. पं.मौलिचन्द्र शर्मा संघ और सरकार के मध्यस्थ की भूमिका में थे. (इस मध्य गुरूजी-पटेल कारागार भेट हुई.) गुरूजी ने संघ केवल सांस्कृतिक कार्य करेगा ! घोषणा की और इस आश्वासन? पर प्रतिबन्ध हटा. भीतर ही भीतर बात सुलग रही थी, एक राजनितिक दल जो संघ पोषित हो, बनाना चाहिए. उ.भा.संघ चालक बसंतराव ओक  (जिन्होंने हिन्दू महासभा भवन में संघ शाखाए लगायी थी.) संघ राजनीती में आये ऐसा दृढ़ मान रहे थे. इनका सम्पर्क सामान्य हिन्दू जनता के साथ व्यापक था. (इस मध्य श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नेहरू विरोध-हिन्दू महासभा से हिन्दू शब्द निकालने का प्रस्ताव आगे उजागर हुवा.)

            संघ नेता हिन्दू महासभा से उलट व्यवहार रखते प्रतीत हुए. जहा हिन्दू महासभा हिंदुत्व की राजनीती को ही चलाना चाहती थी, वहा संघ केवल मात्र हिन्दू नाम पर संगठन से सफलता प्राप्त करने का यत्न करता था. मुखर्जी ने मंत्री मंडल से त्यागपत्र देते ही ओक जैसे राजनितिक उद्दिष्ट के संघ नेता उनसे मिलने लगे. ओक जी को संघ नेतृत्व ने पसंद नहीं किया. श्री.मधोक उन दिनों श्रीनगर में प्राध्यापक थे. कश्मीर में पाकिस्तान की घुसपैठ के पश्चात् वहा के लोगो का मनोबल टूटने नहीं दिया. संघ नेता राजनीती से पृथक रखने का सर तोड़ यत्न करते रहते थे. फिर भी १९५१ कानपुर में जनसंघ के महामंत्री पद पर ओक नियुक्त होने लगे थे तो उनके स्थानपर संघ कार्यकर्त्ता पं.दीनदयाल उपाध्याय को आगे किया. उस समय वह कही भी ख्याति नहीं रखते थे. इस बात का संदेह किया जाता रहा है कि, जब भी जनसंघ कांग्रेस के विरुध्द एक बलशाली राजनितिक दल बन जाता है संघ के अधिकारी उनकी टांग घसीट लेते है. परिणाम यह होता है कुछ लोग हिन्दू विचारधारा के पोषण के लिए इसमें आते है , उनको उभरने नहीं दिया जाता. अतः यह दल संघ की उपसमिति मात्र ही बन रहा है.

        प्रश्न यह है कि,हिन्दू सांस्कृतिक विचारवालों का राज्य इस देश में हो अथवा न हो ?  इसकी नितांत आवश्यकता है. एक प्राचीन, अति श्रेष्ठ, मानव की उन्नत्ति का साधन जो इस देश के मनीषीयोने अपने त्याग और तपस्या से जीवित रखा हुवा है, उसको जीवित रखने के लिए हिंदुत्व की राजनीती प्रचलित होनी चाहिए. वह इस समय देश में नहीं है.

           राजनितिक आंदोलनों पर अधिकार पाना सफलता का साधन है.हिंदुत्व के वास्तविक गौरव की स्पष्ट रुपरेखा को सन्मुख रखकर हिंदुत्व को एक राष्ट्र का रूप देना. इसमें मुख्यतः गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर राजनीती प्रचलित करना. जाती की प्राचीन उपलब्धियों पर आघात से रक्षा के लिए राज्यसत्ता का सञ्चालन.

           वर्तमान में अबुध्द विचारधारा का शासन चल रहा है. इसका विरोध होना चाहिए. पूर्ण हिन्दू समाज को सांस्कृतिक आधार देना असंभव है परन्तु अभारतीय आसुरी शिक्षा के व्यापक प्रचार को हिन्दू समाज का साँझा आधार बनाने का प्रयास में योगदान हो.



            हिन्दू संगठनो को मिलकर एक साँझा कार्यक्रम बनाना चाहिए ; एक सांस्कृतिक और एक राजनितिक दिशा में.रोटी-कपड़ा-मकान शारीरिक आवश्यकताए है जो जीवन का एक न्यून अंश है.

 सन्दर्भ ग्रन्थ-हिंदुत्व की यात्रा-ले.गुरुदत्त "शाश्वत संस्कृति परिषद्" ३०/९० कनोट सरकस,नई दिल्ली-१

सन्दर्भ:-मराठी दैनिक सनातन प्रभात दिनांक २५ मार्च २०१२ पृष्ठ ३ से
श्रीराम सेना अध्यक्ष श्री.प्रमोद मुतालिक जी की रा.स्व.संघ के लिए प्रतिक्रिया                                                                                                                रा.स्व.संघ की ओर से छोटी हिन्दू संगठनाओ के प्रति द्वेष भावना देखकर उनमे विचित्र मानसिक भावना वृध्दिंगत हुई है ऐसा प्रतीत हुवा. बड़ी मछली छोटे मछली को निगल जाती है उसी प्रकार संघ छोटे हिन्दू संगठनों को कुचलते है.हिन्दू जागरण वेदिके की स्थापना एक नमूना ! सब कुछ नियंत्रण हमारे हाथ हो,जैसे हम कहे वहि, उतना ही करे ! ऐसे अलिखित नियम बनाये गए है. जी हुजूरी करने का दुष्परिणाम यह हुवा की संघ की हानि होती जा रही है और उनके आंकलन में नहीं आ रहा यह हिन्दुओ का दुर्भाग्य ! कांग्रेस ने मालेगाव ब्लास्ट का आरोप हिन्दुओ पर मढ़ा उसपर मौन धारण किया.संघ हिंदुत्व की रक्षा के लिए है या हिंदुओंकी बलि चढाने? जब आंच इन्द्रेश कुमार तक आई तब निषेध करने मैदान में उतरे.श्रीराम सेना,सनातन संस्था,हिन्दू जागृति समिति,हिन्दू मक्कल कच्ची,हिन्दू संघती अपनी क्षमता के अनुसार जो भी कार्य कर रहे है उन्हें प्रोत्साहन देने के बजाय उनका द्वेष,मत्सर,अपमान करना शोभा नहीं देता.सहकार्य नहीं और अन्य हिन्दू संगठनाओ को समाप्त करने की योजना बनाना बौध्दिक दिवालियापन है.श्रीराम सेना के विरोध में कन्नड़ समाचार पत्र होसदिगंत में लिखनेवाले हिन्दू जागरण वेदिके के जगदीश कारंथ ने लेख लिखकर श्रीराम सेना पर रंगदारी का आरोप लगाकर प्रतिबन्ध डालने की मांग की.                                                       

     संघ का अन्य हिन्दू संगठनो प्रति भाव यही है की एकमात्र रा.स्व.संघ अस्तित्व में रहे ; हिंदुत्व का कार्य संघ के अलावा अन्य कोई न करे.संघ धन और सत्ता के मोह में भटक रहा है.संघ की हानि से देश की हानि होगी स्वयं भी गड्ढे में जायेंगे और हिंदुत्व की भी हानि करेंगे ! ज्येष्ठ अनुभवी पदाधिकारी इस विकृति को रोककर स्वच्छ वातावरण की निर्मिती करे अन्यथा अन्य हिन्दुत्ववादी संगठनों को गाम्भीर्यपूर्वक विचार करना पड़ेगा. इति-मुतालिक

Sunday, 7 October 2018

श्रीराम जन्मस्थान जमीन ६७:७७ एकर ही कुणाची ?

श्रीराम जन्मस्थान संपुर्ण जगातील सनातनी लोकांचे दैवत ,संविधान अधिष्ठान त्यांचे जन्मस्थान मुक्त व्हावे व विशाल मंदिर पुनर्निर्माण व्हावे ही तो श्रीं ची इच्छा आहे !
परंतु श्रेयाचे राजकारण नि अर्थकारण यामुळे विलंब !
श्रीराम जन्मस्थान जमीन ६७:७७ एकर ही कुणाची ?
यावर सर्वोच्च न्यायालयात सुनावणी सुरु आहे
श्रीराम जन्मस्थान विषयी संत -माहात्म्यांना पुढे करून किंवा आपले अस्तित्व राखू पाहणाऱ्या संतांनी एखाद्या राजकीय पक्षास आर्थिक लालूच दाखवून ज्या घोषणा सुरु केल्यात ते पाहिल्यावर किती ढोंगी राजकारणी व किती फसवे हिंदुत्व घेऊन मतदार किंवा श्रीराम भक्त भुलवले जात आहेत हे सहज लक्षात यावं यासाठी हा लेखन प्रपंच !
ठाणे जिल्ह्यातील हिंदू श्री मलंग गड वा दुर्गाडी किल्ला या आंदोलनाचे काय राजकारण सुरु आहे हे जाणत असतील ! अशी अपेक्षा !
त्यात श्रीराम जन्मस्थान मंदिर आंदोलन घोषणा दसऱ्याला होणार ?
जागृत श्रीराम भक्तांनी विषय समजुन घेतला तर राजकारण विरहित हिंदूंची संयुक्त शक्ती श्रीराम मंदिर पुन्हा उभारणी साठी कामास येईल !
आता मुख्य मुद्दा

श्रीराम जन्मभूमी २३ मार्च १५२८ ला कब्ज्यात घेण्यासाठी बाबराने मीर बांकी च्या हस्ते हुकूमनामा श्री पंच रामानंदीय निर्मोही आखाड्यास पाठवला . महंत श्यामानंद यांनी श्रीराम जन्मस्थान कब्जा सोडण्यास नकार दिल्याने त्यांची हत्या करून मंदिर उखळी तोफा लावून पाडले .
या ठिकाणी मस्जिद निर्माण करण्याचा प्रयत्न झाला .मंदिर विध्वंस केल्या नंतर त्याच ढिगाऱ्यातून १४ स्तंभावर हि वास्तू उभारली जात असतांना
दिवस भर झालेले बांधकाम रात्रीतून धराशायी होत होते व दुसरी कडे युद्ध ही सुरु होते .
अखेर बाबराने श्री पंच रामानंदीय निर्मोही आखाड्याच्या संतांना बोलावून समस्या समाधान विचारले . त्यानुसार मिनार बांधले नाहीत ,वजू करण्यासाठी हौद बांधला नाही. महात्म्यांनी सांगितल्या प्रमाणे संतांना भजन-किर्तनासाठी सभागृह बांधले. परिक्रमा मार्ग ठेवून चंदन लाकुड वापरून सीता पाकस्थान लिहिले आता या ढिगाऱ्यातील स्तंभांवर असलेल्या दैवतांचे पूजन श्री पंच रामानंदीय निर्मोही आखाडा महात्मे करू लागले . तोपर्यंत दोन वर्ष युद्धात एक लक्ष बहात्तर सहस्त्र लोक धरणीवर पडले .असे ७७ वेळा लढून श्रीराम जन्मस्थान श्री पंच रामानंदीय निर्मोही आखाड्यास सोपविले गेले . 
स्वातंत्र्यवीर सावरकर प्रेरणेने उत्तर प्रदेश हिंदू महासभा अध्यक्ष ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ यांच्या नेतृत्वात फैजाबाद हिंदू महासभा अध्यक्ष ठाकूर गोपालसिंग विशारद यांच्या न्यायालयीन नेतृत्वात मंदिर कलंकमुक्त झाले व २६ डिसेंबर १९४९ ला कुरकीं झालेल्या मंदिरात पूजेसाठी ४ पुजाऱरी सरकारी वेतनाने नेमून दोनशे गज मंदिर परिसरात गैरहिंदू प्रवेश प्रतिबंध घातला गेला .
१९६२ साली सुन्नी वक्फ ने हाशिम अंसारी च्या पुढाकारात प्रथम च याचिका टाकली . हिंदू महासभेने ठेवलेल्या मुर्त्या काढून नमाज साठी अनुमती मागितली . १९६५ साली अपिलात ही हिंदू महासभा जिंकली .नंतर प्रोफेसर लाल च्या नेतृत्वात उत्खनन हिंदू महासभेच्या मागणीनुसार झाले . आता पर्यंत मिळालेले सर्व पुरावे साक्ष श्रीराम मंदिर असल्याचे सांगते .
सर्वोच्च न्यायालयाने २०१६ हिंदू महासभेच्या मागणीनुसार मध्यस्थता स्विकारली,घोषित केलं .
जुलै २०१७ हिंदू महासभेच्या पुढाकारात निर्मोही आखाडा व सुन्नी वक्फ चे दावेदार यांत झालेल्या बैठकीत श्रीराम जन्मस्थान मंदिर परिसर बाऊंड्रीवाल सहमती झाली . ४ ऑगस्ट २०१७ पक्षकारांनी पंतप्रधान कार्यालयास पत्र पाठवून भेटीची वेळ मागितली . ती न मिळाल्याने श्री श्री रविशंकर यांनी मध्यस्थता करण्याचा प्रस्ताव दिला नि चर्चा सुरु होताच सर्वोच्च न्यायालयाने सुनावणी मानस व्यक्त केला .
माननीय न्यायालयाने,श्री पंच रामानंदीय निर्मोही आखाड्याच्या १८८५ पासून सुरु असलेल्या सिवील सूट नुसार हा विवाद धार्मिक नसून भूमी स्वामित्वाचा असल्याचे घोषित करून सुनावणी आरंभली आहे .
अश्या परीस्थितीत श्रीराम मंदिर समर्थकांनी श्री समर्थ रामदास स्वामी यांच्या श्री पंच रामानंदीय निर्मोही आखाड्या सोबत उभे राहून बळ द्यायचे कि विवाद चिघळवायचा नि सुनावणी लांबवावी ?


श्रीराम मंदिर राजकीय व भोंदू संधीसाधू यांच्या मुळे २०१० नंतर सुनावणीस आले नाही . हिंदू महासभेच्या प्रयत्नांना मिळालेल्या अराजकीय यशात सर्वांनी पुढाकार घेऊन श्रीराम जन्मभूमी स्वामित्व ओळखून मंदिर मार्ग प्रशस्त करावा.
जय जय रघुवीर समर्थ !
प्रसिद्धी साठी
दासानुदास प्रमोद पंडित जोशी pramod.hindu71@gmail.com

Sunday, 24 June 2018

बाबराने मशीद बांधलीच नाही !

१९३४ पासून नमाज़ झालीच नाही तर मस्जिद कशी ?

ईसापूर्व १०० वर्ष (100 BC) महाराजा विक्रमादित्य यांचे जेष्ठ बंधू भर्तृहरि ने राज्यत्याग करून संन्यास घेतला होता, गुरु गोरखनाथ महाराज यांचे शिष्य झाले होते ! सम्राट विक्रमादित्य जेव्हा श्रीराम दर्शन करण्यासाठी अयोध्येला आले तेव्हा त्यांनी पाहिलं कि,सर्व उध्वस्त आहे तेव्हा त्यांनी महाराज कुश द्वारा निर्माण केलेली हवेली,तिचा पाया शोधून त्यावर विशाल श्रीराम जन्मस्थान हवेली आणि अन्य ३६० मंदिरांचा पुनरुद्धार केला.त्या मंदिराच्या स्तंभांचा उल्लेख 'वंशीय प्रबंध' तथा 'लोमस रामायण' या ग्रंथात सापडतो.प्रभु श्रीराम यांची श्यामवर्ण मूर्ति होती.या मूर्तीची प्राण प्रतिष्ठा राम नवमीच्या पर्वावर उत्सवा सह महाराजा विक्रमादित्य द्वारा झाली होती.

सन १०२६ सोमनाथ मंदिरा वर महमूद गझनवी ने आक्रमण करून मदिर ध्वस्त केले तर त्याचा भाचा सालार मसूद ने १०३२ मध्य अयोध्या आक्रमण केलं ! श्रीराम जन्मस्थान हवेली (मंदिर) ध्वस्त केल्या कारणाने अनेक राजांनी मिळून सालार मसूद ला पळवून लावले.राजा सुहेलदेव पासी ने त्याचा पाठलाग केला नि सिंधौली-सीतापुर मध्ये सालार मसूद चे "पांच सिपह सालार" ठार मारून पुरले, पासी राजा सुहेलदेव मसूदच्या मागावर होता. दिनांक १४ जून १०३३ ला सालार मसूद बहराइच मध्ये ठार मारला गेला,त्याला जिथे पुरले तिथे आता मजार असून दुर्भाग्याने पुत्र प्राप्तीच्या नवसासाठी अनेक हिंदू दर्शनास येतात !

गढ़वाल नरेश गोविन्दचन्द्र शैव (१११४-११५४) यांनी बुध्द मतावलंबी (पूर्व वैष्णव) कुमारदेवी शी विवाह करून भिक्षूंना सहा गावं इनामात दिली.ब्रह्मदेश (म्यानमार) च्या पेगोंग मध्ये महाबोधि प्रतिकृति मंदिर बनवून दिलं.आपले राज प्रतिनिधी- कन्नोज नरेश नयचंद ल ८४ कसोटीचे गढ़वाली शिळा पाठवून अयोध्येत श्रीराम जन्मस्थाना वर विशाल मंदिर निर्माण केलं.ज्याचे प्रमाण १८ जुन १९९२ ला उत्खननांत प्राप्त ३९ अवशेषातील एक २० पंक्ति शिलालेखा वरून दिसून येत !

बाबरा ने आपला शिक्क्यासह,मंदिर सोडण्याचा हुकुमनामा सेनापति मीरबाँकी द्वारा श्री पंच रामानन्दीय निर्मोही आखाड्यास पाठवून ही जेव्हा कब्जा सोडला नाही गेला तेव्हा महंत श्यामानन्द निर्मोही यांचा शिरच्छेद करून मंदिर उखळी तोफा लावून २३ मार्च १५२८ ला तोडलं !

मंदिर पाडुन मशीद बांधत असतां दोन वर्ष युद्ध सुरु होतं ! हंसबर नरेश रणविजयसिंह, महाराणी जयराज कुमारी त्यांचे राजगुरु पं. देवीदीन पाण्डेय यांचे बलिदान मध्य काळात स्वामी महेशानंद साधु सेना घेऊन लढले.पण कथित मशिदीची जेव्हढी भिंत दिवस भरात बांधून होई ती रात्री ढासळून पडत होती.तेव्हा बाबराने हिंदु संतांशी मशवरा केला.तेव्हा साधूंनी भजन-पूजन स्थान निर्माण करण्यास सभागृह बांधण्याचा सल्ला दिला. मिनार बांधले नाहीत,परिक्रमा मार्ग ठेवला.वजू करण्यासाठी हौद बांधला नाही.दारावर हनुमानजी ची मूर्ती लावून सीता पाकस्थान लिहिलं गेलं व छतात चंदन फळ्या टाकल्या !

काही विदेशी यात्रेकरुंनी मंदिराच्या प्रमाण साक्षी नमूद करून ठेवल्या आहेत !

१) ऑस्ट्रेलियन मिशनरी जोसेफ टायफेंथालेर ने १७६६-१७७१ अयोध्या यात्रेहुन परतल्यावर सन १७८५ मध्ये लिहिलेल्या," हिस्ट्री एंड जोग्राफी इंडिया" पृ. २३५-२५४ वर लिहिलेल्या संदर्भानुसार,"बाबराने राम जन्मभूमि स्थित मंदिर उध्वस्त करून मशीद बनवण्याचा प्रयत्न केला. त्यासाठी त्याने उध्वस्त मंदिराच्या ढिगाऱ्यातून सुस्थितीत असलेले ८४ कसोटीच्या १४ स्तंभांचा वापर केला.मुसलमानांशी लढत हिंदु तिथे पूजा-अर्चना करतात व परिसरातील राम चबुतऱ्यावर परिक्रमा केली जाते !"
२) १६०८-१६११ भारत भ्रमणकारी विल्यम फिंच ने लिहिलेल्या,"अर्ली ट्रेवल्स इन इंडिया" पृ. १७६ वर राम फोर्ट-रानि चंड असा उल्लेख सापडतो.
३) गैझेटियर ऑफ़ दी टेरीटरिज अंडर गव्हर्मेंट ऑफ़ इस्ट इंडिया कं. लेखक एडवर्ड थोर्नटन पृ. क्र. ७३९-४० वर सन १८५४ मध्ये लिहितोय कि,"बाबर ने मशिदी साठी मंदिर पाडुन त्याचे ढिगाऱ्यातील १४ स्तम्भ निवडून लावले !"
४) "इनसाय्क्लोपीडिया ऑफ़ इंडिया" १८५७ एडवर्ड बाल्फोअर लिहितो , "राम जन्मस्थान, स्वर गडवार व माता का ठाकुर ३ मंदिर पाडुन मशीद उभी केली."
५) "हिस्टोरिकल स्केच ऑफ़ फ़ैजाबाद" ले.कार्नेजी १८७० मध्ये लिहितो , "राम मंदिरात काळेशे वजनदार स्तंभ होते,त्यांवर सुंदर नक्षीकाम केले होते मंदिर पाडल्यावर ते मशिदी साठी वापरले गेले ! "
६) "गैझिटियर ऑफ़ दी डाविन्स अवध" - १८७७ मध्ये लिहिलंय, बाबर ने १५२८ मध्ये मंदिर पाडुन मशीद बनवली !
७) पर्शियन ग्रंथ "हदीका इ शहादा" ले. मिर्जा जान १८५६ लखनऊ पृ. ७ वर लिहिलंय, "मथुरा, वाराणसी, अयोध्या हिंदु आस्थेशी जोडलेल्या आहेत,त्यांना बाबराच्या आदेशाने तोडून मशिदी बनवल्या आहेत !"
८) ब्रिटिश नियुक्त श्रीराम जन्मभूमि व्यवस्थापक व वाजिद अली शाह चा सेवादार मौलवी अब्दुल करीम ने 'ग़ुमइश्ते हालात इ अयोध्या' मध्ये स्वीकार केलंय कि,मंदिर पाडुन मशिदी बनविल्या !
९) अकबरनामा आइन ए अवध-मध्ये अब्दुल फाजल १५९८ मध्ये अशाच प्रकारे मदिर विध्वंस प्रमाण देतोय !

श्री रामचरित मानसच्या व्यतिरिक्त गोस्वामी तुसलीदास जीं नी रामलला नहछु, वैराग्य संदीपनी, छंदावली रामायण, जानकी मंगल, पार्वती मंगल, श्रीराम सगुणावली, दोहावली, गीतरामायण, कडरवा-रामायण, कृष्ण गीतावली, विनय पत्रिका, हनुमान चालीसा असे अनेक व्रज-अवधी भाषेत अनेक ग्रंथ लिहिलेत जे विश्व विख्यात आहेत.तुसलीदासजी चे 'दोहा शतक' अंतिम चरण श्रीराम जन्मस्थान मंदिर विध्वंस वर्णन आहे !

मंदिर विवादाच्या पृष्ठ भूमि वर ,सन १८५५ अयोध्या नरेश मानसिंह यांच्या सांगण्यावरून वाजिद अली शाह ने श्रीराम जन्मस्थाना वर पुन्हा चबुतऱ्यावर पूजा करण्याची व त्यावर ३ फुट खसच्या चटयांची सावलीची व्यवस्था करुं दिली असे हे वैकल्पिक मंदिर निर्माण केले गेले,पूजा होऊ लागली.आमिर अली ने वाजिद अली व निर्मोही आखाड्याचे बाबा रामचरण दास यांत मध्यस्थता घडवून श्रीराम जन्मस्थाना वर मशीद नसून मंदिर असल्याचा निर्णय घोषित केला.१८५७ क्रांतीचा काळ असल्याने ब्रिटिश सरकार, हिन्दू-मुस्लिम एकता होऊ देऊ इच्छित नव्हते.त्यांनी बाबा रामचरण दास व  आमिर अली ला फाशी देऊन वाजिद अली ला बंदी बनवून लंडन ला धाडलं.ब्रिटिशांनी श्रीराम मंदिर व्यवस्थापन अब्दुल करीम कडे सोपवलं होत व त्याने ही आपल्या पुस्तकात मंदिर स्वीकार केलंय !

ब्रिटिशांनी राजकीय उद्देश्याने मोहमद अजगर ला चिथावणी देऊन श्रीराम जन्मस्थान मंदिर भिंतीत दार बनवून मंदिराच्या मागे मैदानात जाण्याचा रस्ता व नमाज अनुमती मागण्याचा सल्ला दिला. दिनांक १३ डिसेंबर १८७७ ला हा विवाद ब्रिटिश आयुक्त फैजाबाद कडे गेला.श्री पंच रामानंदीय निर्मोही अखाडा महंत श्री खेमदास यांनी विरोध केला परंतु ,ब्रिटिश कूटनीति नुसार मुस्लिम पक्षाच्या बाजून निर्णय देण्यात आला.मंदिराच्या मागील बाजूस जी भिंत उभी केली ती इबादतगाह कशी ? पूर्वे कडे तोंड करून नमाज होत नाही कि त्या बांधलेल्या भिंती कडे पाठ करून ही नमाज पढत नाही म्हणून मंदिराच्या व्हरांढयात पाच-सहा नमाजी येऊन १९३४ पर्यंत नमाज चा रेकॉर्ड बनवून गेले.दिनांक १९ जानेवारी १८८५ फ़ैजाबाद कनिष्ठ न्यायालयात निर्मोही अखाडा महंत श्री रघुबरदास गेले तिथे त्यांची याचिका निरस्त झाली तेव्हा जिल्हा न्यायालयात दिवाणी वाद क्र.१७/१८८५ प्रस्तुत केला ; न्या. कर्नल एम्. इ. ए. चामियार नी राम जन्मस्थान परिसर दौऱ्याची नौटंकी केली व पूर्व निर्णय स्थिर ठेवला.म्हणून पुन्हा १८ मार्च १८८६ ला  कमिश्नर ऑफ़ डिस्ट्रिक्ट कोर्टात निर्मोही आखाड्या ने अभ्यर्थना (अपील) केली. न्या. डब्ल्यू. यंग ने इतिहासात न डोकावता "विवादित स्थल - मस्जिद द जन्मस्थान" अशी नोंद करीत दावा फेटाळला.या घटने नंतर पहिल्यांदा मशिदी चे नाव श्रीराम जन्मभूमी शी जोडले गेले !

१४ जुलै १९४१ फ़ैजाबाद नझुल विभागाने श्रीराम जन्मभूमि मंदिर-परिसर, रामकोट ,अयोध्या ६७.७७ एकर प्लाट क्र. ५८३ असं पंजीकृत करीत वर्णन : तीन गुंबद (कळस) मंदिर, कब्ज़ा श्री पंच रामानंदीय निर्मोही आखाडा महंत श्री रामरघुनाथ दास, पुजारी श्री रामसकल दास एवम रामसुभग दास यांच्या नावे नोंद केली आहे.सन १९४४ उ.प्र. गैझेट मध्ये, 'शिया वा सुन्नी मुस्लिम किंवा त्यांच्या १९३६ मध्ये निर्मित वक्फ बोर्ड नी "मस्जिद द जन्मस्थान"च्या देखरेखीत कोणती ही रुची दाखवली नाही !"असं लिहिलंय.

दिनांक २३-२४ डिसेंबर १९४९ स्वा.वीर सावरकर प्रेरणे ने झालेल्या हिन्दू महासभा आंदोलनात मिळालेल्या सफलते नंतर फैजाबाद जिल्हा हिंदु महासभा अध्यक्ष ठाकुर गोपाल सिंह विशारद यांनी हा विवाद ३/१९५० फैज़ाबाद न्यायालयात नेला.
यात १७ राष्ट्रिय मुसलमानांनी कोर्टात शपथ पत्र देत म्हटलंय कि, "हम दिनों इमान से हलफ करते है की, बाबरी मस्जिद वाकई में राम जन्मभूमि है. जिसे शाही हुकमत में शहं शाह बाबर बादशाह हिंद ने तोड़कर बाबरी मस्जिद बनवाई थी. इस पर से हिन्दुओ ने कभी अपना कब्ज़ा नहीं हटाया. बराबर लड़ते रहे और इबादत करते रहे.बाबर शाह बक्खत से लेकर आज तक इसके लिए ७७ बलवे हुए.सन १९३४ से इसमें हम लोगो का जाना इसलिए बंद हो गया की, बलवे में ३ मुसलमान क़त्ल क़र दिए गए और मुकदमे में सभी बरी हो गए. शरियत के मुतालिक भी हम उसमे नमाज नहीं क़र सकते क्यों की इसमें बुत है. इसलिए हम सरकार से अर्ज करते है कि मंदिर हिन्दु ओ को सौप दिया जाए !" ......लिहून देणार वली मुहमद पुत्र हस्नु मु.कटरा; अब्दुल गनी पुत्र अल्लाबक्ष मु.बरगददिया; अब्दुल शफुर पुत्र इदन मु. उर्दू बाजार; अब्दुल रज्जाक पुत्र वजीर मु. राजसदन; अब्दुल सत्तार समशेर खान मु. सय्यदबाड़ा; शकूर पुत्र इदा मु. स्वर्गद्वार; रमजान पुत्र जुम्मन मु. कटरा; होसला पुत्र धिराऊ मु. मातगैंड; महमद गनी पुत्र शरफुद्दीन मु. राजा का अस्तम्बल; अब्दुल खलील पुत्र अब्दुरस्समद मु. टेडीबाजार; मोहमद हुसेन पुत्र बसाऊ मु. मीरापुर डेराबीबी; मोहमद जहां पुत्र हुसेन मु. कटरा; लतीफ़ पुत्र अब्दुल अजीज मु. कटरा; अजीमुल्ला पुत्र रज्जन मु. छोटी देवकाली; मोहमद उमर पुत्र वजीर मु. नौगजी; फिरोज पुत्र बरसाती मु. चौक फ़ैजाबाद; नसीब दास पुत्र जहान मु. सुतहटी राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रमोद पंडित जोशी हिंदूमहासभा पक्षकार-रामलला विराजमान

Saturday, 3 March 2018

श्रीराम जन्म मंदिर ध्वंसी कह रहे है,हमने आंदोलन शुरु किया मंदिर हम बनाएंगे !

दिनांक ३ मार्च २०१८

श्रीराम जन्मभूमि मंदिर परिसर औरंगजेब से मुक्त कर श्री पंच रामानंदीय निर्मोही आखाड़े को लौटानेवाले छत्रपती शिवाजी महाराज की जयंती के अवसर पर अखिल भारत हिन्दू महासभा के राष्ट्रिय प्रवक्ता श्री प्रमोद पंडित जोशी ने स्पष्ट किया है कि,

" श्रीराम जन्मस्थान मंदिर का कब्जा छोडने का हुकुमनामा बाबर ने श्री पंच रामानंदिय निर्मोही आखाडे के महंत श्यामानंद को भेजा और खैरबकी 23 मार्च 1528 को मीर बाँकी ने श्यामानंद का गला काटकर मंदिर तोडा !" यह सत्य कथित हिंदू जब तक स्वीकार नही करते, कब्जे की मानसिकता रखते है तब तक विवाद बनाए रखना चाह रहे दल और मुसलमान,भाजप द्वारा राजनितिक-आर्थिक लाभ के लिए अपप्रचारीत बाबरी का आग्रह करेंगे !
*गैझेटियर ऑफ़ दी टेरिटरीज अंडर गव्हर्मेन्ट ऑफ़ ईस्ट इंडिया कं के पृष्ठ क्र ७३९-४० के ऐतिहासिक तथ्य के अनुसार," २३ मार्च १५२८ को श्रीराम जन्मस्थान मंदिर ध्वस्त किया और उस ही मलबे से १४ स्तम्भ चुनकर उसपर खडी की वास्तु कभी मस्जिद नहीं बन पायी क्यों की इन स्तंभोपर मुर्तिया थी।"

स्वातंत्र्यवीर सावरकर प्रेरित अखिल भारत हिन्दू महासभा आंदोलन दिनांक २३-२४ दिसंबर १९४९ को श्रीराम जन्मस्थान कलंकमुक्त हुवा और मंदिर को २६ दिसंबर १९४९ को " विवादग्रस्त वास्तु " घोषित कर संविधान की धारा १४५ के अंतर्गत सरकार ने अपने कब्जे में ले ली और श्रीराम जी की पूजा, अर्चना, भोग की सरकारी वेतन से चार पुजारियों द्वारा व्यवस्था लगा दी,मंदिर परिसर के दो सौ गज क्षेत्र में गैरहिंदू प्रवेश पर प्रतिबंध लगाकर पुजारी और एक भंडारी सरकारी वेतन पर नियुक्त कर गर्भगृह में सेवा करने जाने की अनुमति प्रदान की।मात्र दर्शन के लिए लोहे के शिकंजे से अनुमति प्रदान की।इस व्यवस्था में स्वयं प्रशासन ने कोई परिवर्तन नहीं किया।
*माननीय न्यायालय का आदेश है कि ,"मेरे अंतिम निर्णय तक मूर्ति आदि व्यवस्था," जैसी है वैसे " ही सुरक्षित रहे और सेवा,पूजा तथा उत्सव जैसे हो रहे थे वैसे ही होते रहेंगे।"
हिन्दू महासभा के सन १९४९ आन्दोलन के बाद से लांछन रहित यह श्रीराम जन्मस्थान मंदिर न्यायालय संरक्षित है।**सन १९५० हिन्दू महासभा फ़ैजाबाद जिला अध्यक्ष ठा गोपाल सिंग विशारद द्वारा चली 3/1950 न्यायालयीन कार्यवाही में अयोध्या परिसर के १७ राष्ट्रिय मुसलमानों ने कोर्ट में दिए हलफनामे का आशय, *"*हम दिनों इमान से हलफ करते है की,बाबरी मस्जिद वाकई में राम जन्मभूमि है।जिसे शाही हुकूमत में शहेंशाह बाबर बादशाह हिन्द ने तोड़कर बाबरी बनायीं थी।इस पर से हिन्दुओ ने कभी अपना कब्ज़ा नहीं हटाया।बराबर लड़ते रहे और इबादत करते आये है।बाबर शाह बक्खत से लेकर आज तक इसके लिए ७७ बल्वे हुए।सन १९३४ से इसमें हम लोगो का जाना इसलिए बंद हुवा की,बल्वे में तीन मुसलमान क़त्ल कर दिए गए और मुकदमे में सब हिन्दू बरी हो गए।कुरआन शरीफ की शरियत के मुतालिक भी हम उसमे नमाज नहीं पढ़ सकते क्योंकी,इसमें बुत है।इसलिए हम सरकार से अर्ज करते है की,जो यह राम जन्मभूमि और बाबरी का झगडा है यह जल्द ख़त्म करके इसे हिन्दुओ को सौप दिया जाये।"
हलफनामा लिखनेवाले - वली मुहमद पुत्र हस्नु मु.कटरा ; अब्दुल गनी पुत्र अल्लाबक्ष मु.बरगददिया ; अब्दुल शफुर पुत्र इदन मु.उर्दू बाजार ; अब्दुल रज्जाक पुत्र वजीर मु.राजसदन ; अब्दुल सत्तार समशेर खान मु.सय्यदबाड़ा ; शकूर पुत्र इदा मु.स्वर्गद्वार ; रमजान पुत्र जुम्मन मु.कटरा ; होसला पुत्र धिराऊ मु.मातगैंड ;महमद गनी पुत्र शरफुद्दीन मु.राजा का अस्तम्बल ; अब्दुल खलील पुत्र अब्दुरस्समद मु.टेडीबाजार ; मोहमद हुसेन पुत्र बसाऊ मु.मीरापुर डेराबीबी ; मोहमदजहां पुत्र हुसेन मु.कटरा ; लतीफ़ पुत्र अब्दुल अजीज मु.कटरा ; अजीमुल्ला पुत्र रज्जन मु.छोटी देवकाली ; मोहमद उमर पुत्र वजीर मु.नौगजी ; फिरोज पुत्र बरसाती मु.चौक फ़ैजाबाद ; नसीबदास पुत्र जहान मु.सुतहटी

सुल्तानपुर के विधायक नाजिम ने भी एक पत्रक निकालकर मंदिर हिन्दुओ को सौपकर इबादत करने की भावना प्रकट की थी।

* टांडा निवासी नूर उल हसन अंसारी की पुलिस अधिकारी अर्जुनसिंग को दी साक्ष,"मस्जिद में मूर्ति नहीं होती इसके खंभों में भी मुर्तिया है।मस्जिद में मीनार और जलाशय होता है वह यह नहीं है।स्तंभों पर लक्ष्मी,गणेश और हनुमान की मुर्तिया सिध्द करती है की,यह मस्जिद मंदिर तोड़कर बनायीं गयी है।"
पक्षकार हिन्दू महासभा की मांग पर १९६७ से १९७७ के बिच प्रोफ़ेसर लाल के नेतृत्व में पुरातत्व विभाग के संशोधक समूह ने श्रीराम जन्मभूमि पर उत्खनन किया था। इस समिती में मद्रास से आये।

*संशोधक मुहम्मद के के भी थे वह लिखते है*

,"वहा प्राप्त स्तंभों को मैंने देखा है। JNU के इतिहास तज्ञोने हमारे संशोधन के एक ही पहलु पर जोर देकर अन्य संशोधन के पहलुओ को दबा दिया है।मुसलमानों की दृष्टी में मक्का जितना पवित्र है उतनी ही पवित्र अयोध्या हिन्दुओ के लिए है।मुसलमानों ने राम मंदिर के लिए यह वास्तु हिन्दुओ को सौपनी चाहिए।उत्खनन में प्राप्त मंदिर के अवशेष भूतल में मंदिर के स्तंभों को आधार देने के लिए रची गयी इटोंकी पंक्तिया,दो मुख के हनुमान की मूर्ति,विष्णु,परशुराम आदि के साथ शिव-पार्वती की मुर्तिया उत्खनन में प्राप्त हुई है।"

न्यायालय संरक्षित श्रीराम जन्मस्थान मंदिर का शिलान्यास होकर भी उसे बाबर का कलंक लगाकर छह दिसंबर १९९२ को ढहाना,संविधान के प्रथम स्वर्ण पृष्ठ पर अंकित राष्ट्र पुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम राम अर्थात संविधान के अपमान में मंदिर विध्वंस राष्ट्रद्रोह से कम नहीं है ! २३ मार्च १५२८ पूर्व से श्रीराम जन्मस्थान अधिपति रहे,सन १८८५ से मालिकाना अधिकार के लिए न्यायालय में लड़ रहे रामानंदीय निर्मोही आखाड़े ने दिनांक ६ दिसंबर १९९२ को इसकी FIR लिखवाकर मूल वादपत्र 4 A में अंतर्भाव कर दो सौ करोड़ का मंदिर विध्वंस भरपाई दावा ब्रह्मलीन महंत श्री जगन्नाथ दास महाराज ने किया है।

१९४९ अयोध्या आंदोलक/पक्षकार हिंदू महासभा का तर्क :-१४ अगस्त १९४१ नझुल रेकोर्ड फ़ैजाबाद में श्रीराम जन्मस्थान मंदिर रामकोट प्लाट क्रमांक ५८३,वर्णन- तिन गुम्बद मंदिर,कब्ज़ा-महंत श्री रघुनाथ दास,राम सकल दास,राम सुभग दास रामानंदीय निर्मोही आखाडा है। १९५० केस में १७ राष्ट्रिय मुसलमानों ने मंदिर मान्य किया है। तब ही से २०० गज परिसर में गैर हिन्दू प्रवेश प्रतिबंधित है। विरोधको की अभ्यर्थना निरस्त कर न्यायालय के संरक्षण में दर्शन-पुजन-भोग-उत्सव की व्यवस्था हो रही है।श्रीराम जन्मस्थान मंदिर गर्भगृह में हिंदू महासभा ने रखी मुर्तिया हटाने का आरोप कर सुन्नी वक्फ बोर्ड ने याचिका लगाकर केस को पुनार्विवादित किया तब स्व श्री देवकी नंदन अग्रवाल उपाख्य रामसखा ब्रह्मलीन परमहंस महंत रामचंद्र दास महाराज ने श्री पंच रामानंदीय निर्मोही आखाड़े के पक्ष में साक्ष दी है।इसलिए १ /३ भूमी रामसखा या रामलला विराजमान रामानंदीय निर्मोही आखाड़ा को मिलनी चाहिए।
सन १९८९ उच्च न्यायालय ने मुस्लिम पक्ष तथा विहिंप को सभी वाद पीछे लेने का उच्च न्यायलय ने आदेश देकर बेदखल किया है।इसलिए सम्पूर्ण ६७;७७ से अधिक एकड़ भूमी केवल रामानंदीय निर्मोही आखाड़े को ही सौपने की अपेक्षा है।
 AIMPLB पक्षकार ही नही है !२६ जुलाई २०१० को १९४९ अयोध्या आंदोलन की फाइल के अभाव में निर्मोही अखाड़े की १८८५ से चल रही स्वामित्व की सुनवाई न्यायालय ने रोकी थी। उत्तर पदेश सरकार ने शपथपत्र में फाइल्स गायब होने की बात कही। तब हमने मुख्यमंत्री मायावती को FIR करने की सूचना देकर स्पष्टीकरण माँगा तब उन्होंने प्रेस के समक्ष २००० भाजप शासनकाल में फाइल्स गायब होने की जानकारी के साथ साथ सुभाषभान साध के पास यह फाइल्स थी और वह लिबरहान आयोग में साक्ष देने जा रहे थे तब उनकी संदेहास्पद मृत्यु के साथ फाइल्स गायब हुई ! कहा। अधिक पता करने पर जानकारी मिली की इस कृत्य को परिणाम देनेवाले किसी मित्तल को भाजप शासनकाल में बुंदेलखंड यूनिवर्सिटी का उपकुलगुरु के रूप में इनाम दिया गया। परंतु ३० सप्तम्बर को राजनितिक उद्देश्य से अचानक १/३ निर्णय जो कुल ६७:७७ एकड़ भूमि का २:७७ एकड़ हिस्सा जो भाजप सरकार ने १९९१ में रामानंदीय निर्मोही आखाड़े के विरोध के पश्चात भी विवादित बनाकर कब्जे की हुई भूमि पर आया है। उसका निर्मोही आखाडा और सहयोगी हिन्दू महासभा ने सर्वोच्च न्यायालय में विरोध किया और ९ मई २०११ को माननीय न्यायालय ने ३० सप्तम्बर के १/३ निर्णय को निरस्त किया है।
अब शांत मस्तिष्क से निष्पक्ष होकर सोचे "मंदिर को राजनीतिक-आर्थिक षडयंत्र के लिये बाबर का कलंक लगाना आवश्यक था ?"

अपेक्षा -राम जन्मस्थान मंदिर एवं परिसर की ६७:७७ एकड़ से अधिक भूमि संत शिरोमणि तुलसीदास,समर्थ श्री रामदास,संत रविदास,बंदा बैरागी,संत ज्ञानेश्वर जी के पिताश्री विट्ठल पंत कुलकर्णी के श्री पंच रामानंदीय निर्मोही आखाड़े को ७८ वी बार सौपने की हिन्दू परंपरा का पालन और मंदिर पुनर्निर्माण किया जाएं !
केवल व्हाट्स एप 9702340379 नाम-ग्राम के साथ हो ! 

Sunday, 25 February 2018

राम जन्मभूमी कलंक मुक्ति १९४९ आन्दोलन प्रेरक सावरकरजी


दिनांक २४ दिसंबर १९४९ कोलकाता में अखिल भारत हिन्दू महासभा का अधिवेशन डॉक्टर ना.भा.खरे जी की अध्यक्षता में होने जा रहा था। इस अधिवेशन में हिन्दू महासभा के महान नेता वीर सावरकर जी उपस्थित रहे इसलिए उनकी इच्छा के अनुसार निर्देश में सक्रियता लाने के लिए दिनांक ९-१० दिसंबर १९४९ को हिन्दू महासभा भवन, मंदिर मार्ग,नई देहली केंद्रीय कार्यालय में एक बैठक हुई थी। उ.प्र.हिन्दू महासभा अध्यक्ष सावरकरनिष्ठ महंत श्री दिग्विजयनाथ जी गोरक्षपीठ पर "श्रीराम जन्मभूमि कलंकमुक्ति आन्दोलन" की जिम्मेदारी सौपी गयी थी और हिन्दू महासभा फ़ैजाबाद जिला अध्यक्ष ठाकुर गोपालसिंग विशारद,कमिश्नर के के के नय्यर तथा हिन्दू महासभाई निर्मोही आखाडा महंतश्री तथा उनके समर्थक सुदर्शनदास पहाडी,राम बिलास दास,राम सकल दास,बलदेव दास,रामचरण दास तथा अभिराम दास,बृन्दावन दास,गुदड़ बाबा,राम सुभग दास संत-महंतो ने मिलकर किये कलंकमुक्त आंदोलन में उस ही दिन सफलता मिली और मंदिर में घंटानाद भी हुवा।इस घटना में हिन्दू महासभा के नगर पार्षद तथा दिगंबर आखाडा महंतश्री परमहंस रामचंद्र दासजी महाराज का रामानंदीय निर्मोही आखाडा सहयोग में महत्वपुर्ण योगदान रहा।
कोलकाता अधिवेशन के लिए वीर सावरकरजी निकले तब उनके साथ श्री.रा.स.भट जी थे। लोहमार्ग यान (ट्रेन) में हुई वार्ता में वीर सावरकरजी ने, 'अधिकतर लोगो को ऐसा असत्य विश्वास है की,मै हिन्दू महासभा के कामकाज से निवृत्त हो जाऊंगा। मेरे नेतृत्व पर विश्वास रखनेवाले हिन्दू सभाईयोंको मै आश्वासन देता हूँ की,इस कार्य में मै फंस भी जाऊ तो भी आप यह कार्य न छोड़े ! पहले से अधिक लोग हिन्दू महासभा की ओर आकर्षित होंगे। 'इस वक्तव्य से स्पष्ट होता है की,राम जन्मभूमी कलंक मुक्ति १९४९ आन्दोलन एक राजनितिक लाभ और हिंदुत्व का शंखनाद करने की उनकी ही योजना थी।
मुंबई से कोलकाता प्रवास में अधिकांश लोहमार्ग स्थानकोपर सावरकर दर्शन के लिए भीड़ उमड़ती रही। सत्कार होते थे और सावरकरजी द्वार पर खड़े रहकर सभी का अभिवादन का स्वीकार करते थे। कोलकाता स्थानक पर स्वागत स्वीकार कर बाहर निकलने में ही उन्हें एक घंटा लगा। शोभायात्रा निकाली गयी,हुगली नदीपर "हावरा ब्रिज" खचाखच भरा था। चित्तरंजन पार्क-मैदान में हो रहे इस अधिवेशन के लिए महाराष्ट्र से पधारे हिन्दू महासभाईयो के लिए अग्रिमपंक्ति में व्यवस्था कर दी गयी थी। आपटे-गोडसेजी के लिए सन्मान में जयकारा दिया जा रहा था। सावरकरजी का जयकारा हो रहा था।
ध्वनिक्षेपक बंद पड़ने से वीर सावरकरजी का भाषण दुसरे दिन हुवा ; एक लक्ष हिन्दू बैठे थे। वीर जी ने सभा के आरम्भ में हाथ उठाकर प्रश्न किया, " स्वतंत्रता किसने प्राप्त की ? कौन से राजनितिक दल ने ? कांग्रेस ने ? समाजवादियो ने ? साम्यवादियो ने ? हिन्दू महासभाईयो ने ? पूर्व अस्पृश्यों ने ? नहीं ! सभी दलों ने मिलकर ! इतना ही नहीं जिन्हों ने गर्भगृह में बैठकर ईश्वर की प्रार्थना की उन्हें भी इस स्वतंत्रता का श्रेय जाता है !"
जब मै विलायत में पकड़ा गया तब, वहा मैंने वहां "राम-राम" कविता लिखी थी। (श्रीराम जन्मस्थान कलंक मुक्ति का समाचार उन्हें प्राप्त हुवा था।) उसमे मैंने लिखा था कि,"हिन्दुस्थान को जब स्वातंत्र्य प्राप्त होगा तब मेरी अस्थिया जहा भी पड़ी हो वही आनंद विभोर होकर नाचने लगेगी ! क्या "यह" आनंददायी घटना नहीं है ? आज मेरा देश स्वतंत्र है और मै जीवित खड़ा हूँ। ऐसे समय मै क्यू न आनंद से विभोर होकर नाचू ?" कहकर उन्होंने अपना बुट जोर से मंच पर पटका। १५ मिनट तक तालिया बजती रही। { यह है, श्रीराम जन्मभूमी का नि:श्रेयस कलंकमुक्ती आंदोलन और उसके प्रेरक की उदारता और दुसरे वह जो मंदिर को कलंक लगाकर राजनीतिक और आर्थिक रोटियां सेंकनेवाले मंदिर ध्वंसी ! }  
आगे वीर जी ने कहां," गत पांच वर्ष में हिन्दू महासभाईयो ने बलिदान की जो परंपरा खडी की है,उसे इतिहास में विकल्प नहीं।" मृत्यु पत्र में हुतात्मा पं.नाथूराम गोडसे जी ने सोरटी सोमनाथ के पुनरुध्दार के लिए एक सहस्त्र रुपये दान दिए थे। उसका सन्दर्भ ध्यान में रखकर उन्होंने उनके अप्रत्यक्ष गौरव में कहा कि , "सोरटी सोमनाथ का मंदिर कौन खड़ा कर रहा है ? मै ? आप? नहीं, नहीं, सरदार पटेल को धन्यवाद देना चाहिए।" श्रीराम जन्मस्थान मंदिर पुनरुध्दार के लिए यह प्रेरणा थी।पटेल उसे अपने उद्देश्य से निपटना चाहते थे और हिन्दू महासभा को श्री पंच रामानंदीय निर्मोही आखाड़े को  ७८ वी बार श्रीराम जन्मभूमि मंदिर परिसर लौटाने के संकल्प से बद्ध !

सावरकर प्रतिमा पूजक अवसरवादी-मंदिर ध्वंसी श्रीराम जन्मभूमि मंदिर परिसर श्री पंच रामानंदीय निर्मोही आखाडा-रामघाट-अयोध्या को लौटाने का प्रस्ताव पारित कर सार्वजनिक करे ! सावरकरजी को यही श्रद्धांजली होगी !

Thursday, 1 June 2017

गोमांस के भूखे भेडियो

प्राचीन भारत में गोमांस भक्षण के असत्य प्रचार के आधुनिक षड्यंत्र के कारण गोवंश हत्या,मांस भक्षण-निर्यातसे राष्ट्रिय प्रदुषण :- 
सर्वदलीय गोरक्षा अभियान जगद्गुरु श्री शंकराचार्यजी माधवाश्रम के नेतृत्व में चलाने की घोषणा के बाद पायनियर अंग्रेजी दैनिक-दिल्ली में प्रा.डी.एन.झा लिखित पुस्तक Holy Cow: Beef in Indian Dietary Traditions का सन्दर्भ देकर समाचार प्रकाशित किया गया और फिर १३ अगस्त २००१ को उसे महिमा मंडित करने के लिए देवराज मुखर्जी द्वारा एक लेख प्रकाशित किया गया (Holy Cow : How could we ?) जब कभी भारत में गोरक्षा आन्दोलन की चर्चा चलायी जाती है,तब गोमांस के भूखे भेडियो द्वारा ऐसे लेख व पुस्तक प्रकाश में लाई जाती है जिनके द्वारा यह प्रचारित किया जा सके की प्राचीन भारत में भी गोमांस भक्षण किया जाता रहा है.
ब्रिटिश षड्यंत्र परंपरा का आधुनिक संस्करण :- १८५७ में जब भारतीय सैनिकों में अंग्रेजी सरकार द्वारा कारतूसों में गाय की चर्बी के प्रयोग विरुध्द विद्रोह जागा तभी से अंग्रेजोने गो भक्ति का भाव समाप्त करने षड्यंत्र किया.१८७२ में ब्रिटिशनिष्ठ राजेन्द्र लाल मित्र ने लेख प्रकाशित किया-'प्राचीन भारत में गोमांस' यह लेख 'जर्नल ऑफ़ दी एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल'में प्रथम प्रकाशित किया.१८७६ कोलकाता विश्व विद्यालय ने उन्हें L.L.D. उपाधि प्रदान की. W.Newman &co. ने 'इंडो आर्यन' ग्रन्थ प्रकाशित किया जिसमे प्राचीन भारत में गोमांस निबंध था.१९०५ बंगाल पेक्ट ने हिन्दू विरोधी गो हत्या को मान्यता दी.परन्तु,इस्लाम ग्रन्थ के ७-१४३ में "मादी" पशु हत्या हराम कही गई है.
२५ जनवरी १९२५ बेलगाँव गोरक्षा परिषद् के अध्यक्ष भाषण में बै.मो.क.गाँधी ने गोरक्षा के पक्ष में विचार रखे थे.तब कथित स्वामी भूमानंद ने पुस्तिका छापकर हिन्दू समाज में गो भक्षण का अप प्रचार किया.अधिवक्ता पी.बी.काणे ने 'धर्मशास्त्र का इतिहास 'लिखकर प्राचीन भारत में मांस और गोमांस भक्षण प्रचलित था लिखने पर 'भारत रत्न' उपाधि दी गयी. 
महाभारत शांति पर्व में पशु हिंसा का निषेध :- लुब्धैर्वित परैर्ब्रहमन नास्तिकै: संप्रवर्तितम ,वेदबादान विज्ञाय सत्यभास निवानृतं (२६३/६)
सुरा भ्रत्स्या मधु मान्सभासवं क्रुसरौदनम्, धूर्ते: प्रवर्तितं ह्योतन्नैतद वेदेषु कल्पितम् (२६५/६)
बिजैर्यज्ञेषु यष्टव्यमिति वै वैदिकी श्रुति: , अजसंज्ञानि बीजानि (३३७/४-५)
महाभारत के वनपर्व में अतिथि पूजक रंतिदेव २००० गाय बांधकर रखता था. 'बध्यते'का अपभ्रंश 'वध्यते' से हुवा है.इसका उल्लेख श्रीमद भागवत के ९/२१/१२ में तथा सप्तम स्कन्दःअध्याय १५ श्लोक ८ किसी भी प्राणि को किसी प्रकार का कष्ट न दिया जाय लिखा है.
श्री गीता जी के अध्याय २/२० में 'हन्यते' शब्द शरीर के मारे जानेपर भी नहीं मरता से जुदा है मनुस्मृति मे मद्य,मान्स,सुरा,आसव पिशाच,राक्षस,यक्षो के आहार है इसलिये देवताओन्की हवि खानेवालो के लिये यह वस्तुए खाने योग्य नही.
वेदोंमे मांस भक्षण का विरोध ऋग्वेद की ऋचा १०,८७,१८/८,४ ,८,१ ऋग्वेद ६/२८/५ अथर्व वेद-१/१६/४ यजुर्वेद-१३/४२-४३ तथा १२/४९ में किया है.

अल गजाली १०५८-११११ बगदाद इस्लामिया शिक्षा संस्था के प्रमुख थे ने लिखी इहय उलूम उल-दिन जिसे कुर्रानके समकक्ष माना जाता है.उसका उर्दू अनुवाद 'मजाकुल आरफीन' में ,गाय का गोश्त मर्ज (रोग) है,उसका दूध शफा और घी दवा है.
शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ (३-१-२-२१) का गलत अर्थ निकालकर महर्षि याज्ञवल्क्य जी पर लांछन लगाने का प्रयास हुवा.सनातन धर्मलोक के लेखक पं.दीनानाथ सारस्वत जी ने खंडन कर लिखा है की,'यज्ञकर्ता के रूप में अंसल खा सकता है'. अमरकोश के (२-६-४४) में 'अंसल' मांस जैसा मांसल होता है अर्थात अंसल बलकारक होता है! स्वर्गीय श्री.वामन शिवराम आप्टे जी के शब्दकोष में मांस का उल्लेख किये बिना "बलवर्धक" कहा है तो पाणिनि के सूत्र भी बलकारक कहते है.याज्ञवल्क्य जी का अंसल खाने का मंतव्य दूध या दूध से बने पदार्थोंसे मक्खन,मलाई,रबड़ी,श्रीखंड,खीर से है. भारतोत्पन्न हिन्दू पंथियोंमे भेद डालने की गो भक्षक समूह की कूटनीति और कुछ नहीं.
सन्दर्भ ग्रन्थ 'प्राचीन भारत में गोमांस भक्षण-एक समीक्षा'-मथुरा तथा श्री.रामेश्वर मिश्र 'पंकज'लिखित "गोमाता-सांस्कृतिक अस्मिता की प्रतिक" तथा स्वर्गीय श्री.प्रकाशवीर शास्त्री जी लिखित 'गो हत्या यानि राष्ट्र हत्या' से साभार साप्ताहिक हिन्दू सभा वार्ता का दिनांक १५-२१ तथा २२-२८ अगस्त २००१ के अंक में सम्पादित
गो वंश को राष्ट्रिय पशु घोषित करने की हिन्दू महासभा नेता वीर सावरकरजी की मांग को अनदेखा कर मांस-चर्बी निर्यात में उच्चांक कथित हिंदूवादी सरकार ने किया है।
हिन्दू महासभा की मांग है कि ,"गोवंश पालक के आधार कार्ड पर संख्या,लिंग,आयु,जन्म-मृत्यु,खरीद-बिक्री पंजीकृत की जाए !"